तुर्की की ब्रिक्स सदस्यता खटाई में पड़ी, जानें उसकी दावेदारी कैसे रोक सकता है भारत?
तुर्की ने ब्रिक्स की सदस्यता के लिए औपचारिक आवेदन दिया है, लेकिन भारत इसके खिलाफ मजबूत रुख अपना सकता है. पाकिस्तान के साथ तुर्की के बढ़ते सैन्य संबंध, कश्मीर मुद्दे पर दखल और भारत विरोधी रुख के चलते यह सदस्यता खतरे में है.

तुर्की की ब्रिक्स में पूर्ण सदस्यता की कोशिश ने वैश्विक मंच पर एक नई बहस को जन्म दे दिया है. ब्रिक्स यानी ब्राज़ील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका का यह संगठन अब अपने विस्तार की योजना पर काम कर रहा है. कई देशों ने इसमें रुचि दिखाई है और इसी क्रम में तुर्की ने भी ब्रिक्स की सदस्यता के लिए औपचारिक रूप से आवेदन किया है. लेकिन क्या तुर्की को इसमें शामिल किया जाना चाहिए? और सबसे अहम सवाल ये है कि क्या भारत इस पर रोक लगा सकता है?
तुर्की की रणनीति और भारत के साथ उसके बिगड़े संबंध
तुर्की के राष्ट्रपति रेचेप तैयप एर्दोगन कई बार ब्रिक्स में शामिल होने की इच्छा जाहिर कर चुके हैं. उन्होंने इसे पश्चिमी देशों के दबदबे के जवाब में एक वैकल्पिक मंच बताया है. तुर्की फिलहाल ब्रिक्स का 'पार्टनर कंट्री' है, लेकिन अब वह पूर्ण सदस्य बनना चाहता है. हालांकि तुर्की की इस कोशिश को भारत की ओर से सहमति मिलना आसान नहीं लगता. वजह साफ है तुर्की का पाकिस्तान को खुला समर्थन और भारत विरोधी बयान. एर्दोगन ने संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर का मुद्दा कई बार उठाया है, जिससे भारत की कूटनीति को झटका लगा है.
पाकिस्तान को ड्रोन सप्लाई और भारत के लिए सुरक्षा चिंता
भारत और तुर्की के रिश्तों में तल्खी तब और बढ़ गई जब यह सामने आया कि तुर्की ने पाकिस्तान को सैन्य ड्रोन की आपूर्ति की है. इन ड्रोन का इस्तेमाल भारत के खिलाफ आतंकी गतिविधियों और सीमावर्ती इलाकों में घुसपैठ में किया गया. इसके अलावा तुर्की लगातार पाकिस्तान के साथ खड़ा नजर आता है, खासकर कश्मीर मुद्दे पर. ऐसे में यह साफ है कि भारत के लिए तुर्की पर भरोसा करना मुश्किल है. भारत की यह चिंता सिर्फ सुरक्षा तक सीमित नहीं है, बल्कि कूटनीतिक और सामरिक रणनीति में भी यह एक बड़ी बाधा है.
भारत के पास है वीटो का विकल्प
ब्रिक्स एक ऐसा मंच है जहां सदस्य देशों के बीच सर्वसम्मति जरूरी होती है. यानी कोई भी नया देश तभी सदस्य बन सकता है जब सभी मौजूदा सदस्य सहमत हों. भारत के पास इस प्रक्रिया में वीटो पावर के बराबर का अधिकार है. अगर भारत चाहे तो वह तुर्की की सदस्यता पर आपत्ति जताकर इसे रोक सकता है. मौजूदा हालातों को देखते हुए यह मुमकिन है कि भारत इस विकल्प का इस्तेमाल करे.
तुर्की की दोहरी रणनीति और भारत की सजगता
चौंकाने वाली बात यह है कि कुछ महीने पहले तक तुर्की भारत के साथ नरम रुख अपना रहा था. उसने ब्रिक्स को लेकर सकारात्मक बयान दिए, द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने की बातें कीं. लेकिन जब भारत ने इसकी अनदेखी की तो तुर्की ने अपना पुराना रुख अपना लिया और पाकिस्तान के पक्ष में खड़ा हो गया. यह 'दोहरी रणनीति' भारत की विदेश नीति के लिए एक स्पष्ट संकेत है कि तुर्की पर भरोसा करना जोखिम भरा हो सकता है.
ब्रिक्स का मकसद एक वैकल्पिक वैश्विक शक्ति केंद्र बनाना है जो विकासशील देशों की आवाज बन सके. ऐसे में नए देशों की सदस्यता पर निर्णय लेते समय सिर्फ उनकी आर्थिक शक्ति ही नहीं, बल्कि उनके राजनीतिक रुख और रणनीतिक संतुलन का भी मूल्यांकन जरूरी होता है. तुर्की का बार-बार पश्चिम विरोधी रुख और भारत के खिलाफ गतिविधियां यह संकेत देती हैं कि वह ब्रिक्स के भीतर संतुलन नहीं बल्कि असंतुलन ला सकता है.
तुर्की की ब्रिक्स सदस्यता की महत्वाकांक्षा को लेकर भारत का रुख काफी अहम साबित होगा. मौजूदा हालात में भारत के लिए तुर्की पर भरोसा करना और उसे रणनीतिक मंच पर साथ लेना आसान नहीं होगा. पाकिस्तान से उसके करीबी रिश्ते, आतंकवाद पर नरम रवैया और भारत विरोधी बयान यह साबित करते हैं कि तुर्की फिलहाल उस भरोसे पर खरा नहीं उतरता जिसकी जरूरत एक ब्रिक्स सदस्य देश में होती है. भारत यदि इस सदस्यता पर आपत्ति जताता है तो यह एक कूटनीतिक और रणनीतिक रूप से मजबूत फैसला माना जाएगा. आने वाले समय में यह देखना दिलचस्प होगा कि ब्रिक्स का विस्तार वास्तव में एकजुटता लाता है या फिर सदस्यता की राजनीति इसमें दरारें डालती है.