क्या पाकिस्तान में लोकतंत्र खत्म? सेना के आगे झुके शहबाज? पाकिस्तान की राजनीति में बड़ा उलटफेर
क्या पाकिस्तान में प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की सत्ता खत्म हो रही है? फील्ड मार्शल आसिम मुनीर के बढ़ते राजनीतिक दखल से यह सवाल उठ रहा है. विदेश नीति से लेकर निवेश तक हर जगह सेना का नियंत्रण दिख रहा है. इस एक्सक्लूसिव रिपोर्ट में पाकिस्तान के बदलते राजनीतिक समीकरण और लोकतंत्र पर मंडराते संकट के बारे में जानें.

पाकिस्तान एक बार फिर उस मोड़ पर खड़ा दिख रहा है जहां लोकतंत्र और सेना के रिश्ते सवालों के घेरे में हैं. प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ की हालिया विदेश यात्राओं में सेना प्रमुख फील्ड मार्शल आसिम मुनीर की मौजूदगी और देश की प्रमुख नीतियों में उनकी बढ़ती भूमिका यह संकेत देती है कि पाकिस्तान अब एक 'मिलिट्री-ड्रिवन डेमोक्रेसी' की ओर बढ़ रहा है. सत्ता का संचालन अब इस्लामाबाद से कम और रावलपिंडी (GHQ) से ज़्यादा होता दिख रहा है.
विदेश नीति भी अब फौज के हाथों में?
तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन और ईरानी नेतृत्व के साथ शहबाज शरीफ की हालिया मुलाकातों में आसिम मुनीर की मौजूदगी ने सबको चौंका दिया. परंपरागत रूप से पाकिस्तान आर्मी चीफ प्रधानमंत्री के साथ विदेश दौरों में शामिल नहीं होते. लेकिन यहां न केवल वे साथ रहे, बल्कि एर्दोगन से उन्होंने सीधी बातचीत की और शरीफ उन्हें परिचय करवाते दिखे. जो पाकिस्तान की विदेश नीति में फौज की सीधी भागीदारी को सार्वजनिक रूप से उजागर करता है.
'ऑपरेशन बुनीयनुम मर्सूस' और तस्वीर विवाद
भारत से तनाव के दौरान पाकिस्तान ने "ऑपरेशन बुनीयनुम मर्सूस" का दावा किया, जिसे आंतरिक और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ी सैन्य प्रतिक्रिया के रूप में पेश किया गया. लेकिन जब एक डिनर में फील्ड मार्शल मुनीर ने प्रधानमंत्री शरीफ को भारत पर कथित कार्रवाई की एक तस्वीर भेंट की, तो सोशल मीडिया ने उसे 2017 की चीनी सेना की तस्वीर करार दिया. यह विवाद सेना की साख और शरीफ सरकार की विश्वसनीयता दोनों को झटका देने वाला साबित हुआ.
अब इकोनॉमी भी आर्मी के नियंत्रण में
2023 में स्थापित SIFC (Special Investment Facilitation Council) का उद्देश्य था विदेशी निवेश को आकर्षित करना. लेकिन इसकी को-चेयरमैनशिप प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ और फील्ड मार्शल मुनीर के पास है. इसका सीधा संकेत है कि अब पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पर भी सेना का निर्णायक नियंत्रण बढ़ता जा रहा है. निवेशकों से लेकर नीतिगत निर्णयों तक, हर स्तर पर अब सैन्य प्रभाव देखा जा रहा है.
वैसे आपको बता दें कि 1959 के बाद पहली बार किसी पाकिस्तानी आर्मी चीफ को फील्ड मार्शल की पदवी दी गई है. आसिम मुनीर को यह पदवी देकर न केवल उनके अधिकारों को औपचारिक रूप से मजबूत किया गया है, बल्कि यह स्पष्ट संकेत दिया गया है कि सेना अब रक्षा से आगे बढ़कर नीतियों और राजनीतिक निर्णयों तक पहुंच चुकी है.
ऐसे में कहना गलत नहीं होगा कि शहबाज शरीफ की भूमिका अब केवल एक प्रतीकात्मक प्रधानमंत्री की रह गई है. सेना की मौजूदगी हर अहम फैसले में दिख रही है. इमरान खान की पार्टी PTI पर दबाव, मीडिया की सेंसरशिप, और हर रणनीतिक नीति में सेना का हावी होना यह बताता है कि शरीफ केवल एक मुखौटा हैं. सवाल यह है कि क्या यह लोकतंत्र का पतन है या सेना द्वारा नियंत्रित एक नया राजनीतिक प्रयोग?