धर्म और नीति की पुनर्परिभाषा: वीर अंगद, श्री हनुमान और हमारी आज की चुनौतियां
आज बहुत लोग कहते हैं कि युद्ध टालना चाहिए. पर क्या धर्म की अवहेलना कर दी जाए? क्या अधर्म की अनदेखी मात्र संवाद से संभव है? रामायण का एक प्रसिद्ध प्रसंग है- गिलहरी द्वारा रेत के कण सेतु निर्माण में डालना. वह गिलहरी प्रतीक है उस सामान्य भारतीय का, जो चाहता है कि जब आने वाली पीढ़ियाँ पूछें कि उस निर्णायक समय में आपने क्या किया- तो उसका उत्तर हो: मैंने भी रेत के एक कण का योगदान दिया.

जब आज भारत के चारों ओर युद्ध और संघर्ष की आशंकाएं मंडरा रही हैं, तब यह स्वाभाविक है कि कुछ स्वर शांति और संवाद की पुकार कर रहे हैं. शांति का यह आग्रह स्वाभाविक है, किंतु क्या शांति सदैव नीति होती है? और क्या हर युद्ध अनुचित होता है?
हमारे यहां धर्म और अधर्म की स्पष्ट रेखाएं रही हैं- श्री राम और रावण के मध्य, पांडव और कौरवों के बीच. रामायण के प्रसंग आज केवल धार्मिक आख्यान नहीं, नीति और शौर्य के जीवंत पाठ हैं.
यह भी ध्यान देने योग्य है कि अंगद और श्री हनुमान दोनों पहले शांति का प्रस्ताव लेकर ही लंका गए थे. श्रीराम की ओर से रावण को समझाने, नीति का मार्ग सुझाने और युद्ध टालने का अवसर देने की भरपूर कोशिश हुई. पर जब अधर्म अड़ा रहा, तब धर्म ने शस्त्र उठाया. यह सनातन मर्यादा रही है- पहले नीति, फिर युक्ति, और अंत में शक्ति. यही संतुलन बुद्ध के भारत की आत्मा है, जो “अहिंसा परमो धर्मः” को जीती है, लेकिन साथ ही “धर्म हिंसा तथैव च” को भी समय आने पर स्वीकार करती है.
श्री हनुमान जी जब लंका दहन करते हैं, तो वह केवल प्रतिशोध नहीं, अनुशासनबद्ध शौर्य का परिचय है. यह वही श्री हनुमान हैं जो श्रीराम की आज्ञा से बंधे रहते हैं, और यह वही आज्ञा उन्हें उस सीमित विनाश की मर्यादा देती है. यही सनातन मर्यादा है– जहां शक्ति, सेवा के अधीन है.
आज बहुत लोग कहते हैं कि युद्ध टालना चाहिए. पर क्या धर्म की अवहेलना कर दी जाए? क्या अधर्म की अनदेखी मात्र संवाद से संभव है? रामायण का एक प्रसिद्ध प्रसंग है- गिलहरी द्वारा रेत के कण सेतु निर्माण में डालना. वह गिलहरी प्रतीक है उस सामान्य भारतीय का, जो चाहता है कि जब आने वाली पीढ़ियाँ पूछें कि उस निर्णायक समय में आपने क्या किया- तो उसका उत्तर हो: मैंने भी रेत के एक कण का योगदान दिया.
अब यदि भारत की 150 करोड़ जनसंख्या वाली धर्मभूमि में प्रत्येक भारतवासी गिलहरी के समान ही छोटा सा योगदान भी देने लगे, तो भारत का लोहा न केवल शत्रु बल्कि पूरी दुनिया मानेगी.
आज भारत उस सेतु के निर्माण काल में है- नीति का सेतु, आत्मगौरव का सेतु, सनातन मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा का सेतु. हम सभी को यह आत्मावलोकन करना होगा कि क्या हम केवल शांति की बात कर अपने कर्तव्य से विमुख हो रहे हैं? या हम वीर अंगद, श्री हनुमान, गिलहरी और विभीषण की तरह, धर्म के पक्ष में खड़े होकर अपना योगदान दे रहे हैं?
रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है:
सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है.
“भय बिनु होइ न प्रीति।”
तुलसीदास की यह पंक्ति भी केवल भक्ति या निजी संबंधों की बात नहीं करती- यह सत्ता, नीति और सामाजिक चेतना के केंद्र में खड़ा एक सार्वकालिक सत्य है.
जब अन्याय के विरुद्ध कोई ठोस प्रतिरोध या दंड की आशंका न हो, तब नीति, प्रेम और संवाद जैसे आदर्श केवल प्रदर्शन मात्र रह जाते हैं- प्रभावहीन और प्रतीकात्मक.
आज जब कुछ नीतिगत और सामरिक निर्णयों को लेकर समाज का एक वर्ग 'शांति' के नाम पर विचलित हो रहा है, तब यह प्रश्न उठाना आवश्यक है- क्या हम शक्ति के बिना शांति चाहते हैं? और क्या हम केवल आदर्शों के भरोसे अन्याय से टकरा सकते हैं?
यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जब कोई राष्ट्र साहसिक निर्णय लेकर अपने नागरिकों की रक्षा और सम्मान सुनिश्चित करता है, तब वही समाज जिसे सुरक्षा की सबसे अधिक अपेक्षा होती है, उस निर्णय को लेकर नैतिक असहजता दिखाने लगता है. शायद हम भूल जाते हैं कि शांति कोई स्वाभाविक अवस्था नहीं है, उसे स्थापित करना पड़ता है, और कभी-कभी उसे कायम रखने के लिए कठोर कदम भी उठाने पड़ते हैं.
क्योंकि धर्म, न्याय और प्रेम- ये सब तब तक स्थिर नहीं हो सकते, जब तक उन्हें संबल देने वाली एक निर्णायक शक्ति उपस्थित न हो. और वही शक्ति, जब धर्मपरायण नेतृत्व के हाथ में हो, तब वह केवल भय नहीं जगाती- वह सम्मान और संतुलन की नई परिभाषा गढ़ती है.
यह केवल भूतकाल की बात नहीं. वर्तमान का परिप्रेक्ष्य पश्चिमी सोच से भी कुछ सीखने योग्य है. अमेरिका जैसे राष्ट्र अपने नायकों की शौर्यगाथा को स्कूलों में पढ़ाते हैं. चर्चिल से लेकर लिंकन तक के वक्तव्यों में राष्ट्र, शौर्य और नीति का समन्वय स्पष्ट दिखता है. हम क्यों नहीं वीर अंगद और श्री हनुमान को आधुनिक संदर्भों में पढ़ाते?
युद्ध का आग्रह नहीं है, पर नीति के आग्रह में यदि युद्ध अपरिहार्य हो, तो वह सनातन धर्म की परंपरा रही है. श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को युद्ध की प्रेरणा दी थी- क्योंकि वह धर्म का युद्ध था, आत्मगौरव की रक्षा का युद्ध था.
समय आ गया है कि भारत की युवा पीढ़ी अंगद की तरह अडिग खड़ी हो, श्री हनुमान की तरह मर्यादित वीरता को धारण करे, और उस गिलहरी की तरह योगदान दे जो युगों तक प्रेरणा बन गई.
पूज्य गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी ने कहा है:
“जिसकी जैसी बनी भूमिका, उसको आज निभाना है,
गिद्ध, गिलहरी, वानर, भालू सा जौहर दिखलाना है।”
जब राष्ट्र की बागडोर ऐसे नेतृत्व के हाथों में हो जो धर्म-संस्कृति का संरक्षक हो, जो केवल सत्ता नहीं बल्कि आदर्श का प्रतिनिधि हो, तब संशय या प्रलोभन की बुद्धि को त्याग कर उस नेतृत्व के साथ एकात्म होना ही राष्ट्रधर्म बन जाता है. ऐसा नेतृत्व केवल शासन नहीं करता, वह चेतना को जागृत करता है और समाज को आत्मा के स्तर पर जोड़ता है.
श्री रामचरितमानस में तुलसीदास जी धर्मपरायण राजा की भूमिका को इन शब्दों में चित्रित करते हैं:
"जे नर रहहिं धरम कर लेखा। होहिं सकल भूतन्ह के लेखा॥"
(अर्थ: जो राजा धर्म के मर्यादित मार्ग पर चलते हैं, वे समस्त प्राणियों के लिए आधार व आश्रय बन जाते हैं.)
ऐसा नेतृत्व केवल समय का प्रबंधन नहीं करता, वह युगों का निर्माण करता है. और उस काल में, राष्ट्र के प्रति संपूर्ण निष्ठा ही सच्चा विवेक है.
यह केवल एक लेख नहीं, एक आह्वान है- अपने भीतर के रामायण को पुनः जाग्रत करने का.
(लेखक सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण और जेल सुधार क्षेत्र में सक्रिय एक सन्यासी हैं. यह उनके निजी विचार हैं.)
हमारे यहां धर्म और अधर्म की स्पष्ट रेखाएं रही हैं- श्री राम और रावण के मध्य, पांडव और कौरवों के बीच. रामायण के प्रसंग आज केवल धार्मिक आख्यान नहीं, नीति और शौर्य के जीवंत पाठ हैं.
यह भी ध्यान देने योग्य है कि अंगद और श्री हनुमान दोनों पहले शांति का प्रस्ताव लेकर ही लंका गए थे. श्रीराम की ओर से रावण को समझाने, नीति का मार्ग सुझाने और युद्ध टालने का अवसर देने की भरपूर कोशिश हुई. पर जब अधर्म अड़ा रहा, तब धर्म ने शस्त्र उठाया. यह सनातन मर्यादा रही है- पहले नीति, फिर युक्ति, और अंत में शक्ति. यही संतुलन बुद्ध के भारत की आत्मा है, जो “अहिंसा परमो धर्मः” को जीती है, लेकिन साथ ही “धर्म हिंसा तथैव च” को भी समय आने पर स्वीकार करती है.
श्री हनुमान जी जब लंका दहन करते हैं, तो वह केवल प्रतिशोध नहीं, अनुशासनबद्ध शौर्य का परिचय है. यह वही श्री हनुमान हैं जो श्रीराम की आज्ञा से बंधे रहते हैं, और यह वही आज्ञा उन्हें उस सीमित विनाश की मर्यादा देती है. यही सनातन मर्यादा है– जहां शक्ति, सेवा के अधीन है.
आज बहुत लोग कहते हैं कि युद्ध टालना चाहिए. पर क्या धर्म की अवहेलना कर दी जाए? क्या अधर्म की अनदेखी मात्र संवाद से संभव है? रामायण का एक प्रसिद्ध प्रसंग है- गिलहरी द्वारा रेत के कण सेतु निर्माण में डालना. वह गिलहरी प्रतीक है उस सामान्य भारतीय का, जो चाहता है कि जब आने वाली पीढ़ियाँ पूछें कि उस निर्णायक समय में आपने क्या किया- तो उसका उत्तर हो: मैंने भी रेत के एक कण का योगदान दिया.
अब यदि भारत की 150 करोड़ जनसंख्या वाली धर्मभूमि में प्रत्येक भारतवासी गिलहरी के समान ही छोटा सा योगदान भी देने लगे, तो भारत का लोहा न केवल शत्रु बल्कि पूरी दुनिया मानेगी.
आज भारत उस सेतु के निर्माण काल में है- नीति का सेतु, आत्मगौरव का सेतु, सनातन मूल्यों की पुनर्प्रतिष्ठा का सेतु. हम सभी को यह आत्मावलोकन करना होगा कि क्या हम केवल शांति की बात कर अपने कर्तव्य से विमुख हो रहे हैं? या हम वीर अंगद, श्री हनुमान, गिलहरी और विभीषण की तरह, धर्म के पक्ष में खड़े होकर अपना योगदान दे रहे हैं?
रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा है:
सहनशीलता, क्षमा, दया को तभी पूजता जग है
बल का दर्प चमकता उसके पीछे जब जगमग है.
“भय बिनु होइ न प्रीति।”
तुलसीदास की यह पंक्ति भी केवल भक्ति या निजी संबंधों की बात नहीं करती- यह सत्ता, नीति और सामाजिक चेतना के केंद्र में खड़ा एक सार्वकालिक सत्य है.
जब अन्याय के विरुद्ध कोई ठोस प्रतिरोध या दंड की आशंका न हो, तब नीति, प्रेम और संवाद जैसे आदर्श केवल प्रदर्शन मात्र रह जाते हैं- प्रभावहीन और प्रतीकात्मक.
आज जब कुछ नीतिगत और सामरिक निर्णयों को लेकर समाज का एक वर्ग 'शांति' के नाम पर विचलित हो रहा है, तब यह प्रश्न उठाना आवश्यक है- क्या हम शक्ति के बिना शांति चाहते हैं? और क्या हम केवल आदर्शों के भरोसे अन्याय से टकरा सकते हैं?
यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि जब कोई राष्ट्र साहसिक निर्णय लेकर अपने नागरिकों की रक्षा और सम्मान सुनिश्चित करता है, तब वही समाज जिसे सुरक्षा की सबसे अधिक अपेक्षा होती है, उस निर्णय को लेकर नैतिक असहजता दिखाने लगता है. शायद हम भूल जाते हैं कि शांति कोई स्वाभाविक अवस्था नहीं है, उसे स्थापित करना पड़ता है, और कभी-कभी उसे कायम रखने के लिए कठोर कदम भी उठाने पड़ते हैं.
क्योंकि धर्म, न्याय और प्रेम- ये सब तब तक स्थिर नहीं हो सकते, जब तक उन्हें संबल देने वाली एक निर्णायक शक्ति उपस्थित न हो. और वही शक्ति, जब धर्मपरायण नेतृत्व के हाथ में हो, तब वह केवल भय नहीं जगाती- वह सम्मान और संतुलन की नई परिभाषा गढ़ती है.
यह केवल भूतकाल की बात नहीं. वर्तमान का परिप्रेक्ष्य पश्चिमी सोच से भी कुछ सीखने योग्य है. अमेरिका जैसे राष्ट्र अपने नायकों की शौर्यगाथा को स्कूलों में पढ़ाते हैं. चर्चिल से लेकर लिंकन तक के वक्तव्यों में राष्ट्र, शौर्य और नीति का समन्वय स्पष्ट दिखता है. हम क्यों नहीं वीर अंगद और श्री हनुमान को आधुनिक संदर्भों में पढ़ाते?
युद्ध का आग्रह नहीं है, पर नीति के आग्रह में यदि युद्ध अपरिहार्य हो, तो वह सनातन धर्म की परंपरा रही है. श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को युद्ध की प्रेरणा दी थी- क्योंकि वह धर्म का युद्ध था, आत्मगौरव की रक्षा का युद्ध था.
समय आ गया है कि भारत की युवा पीढ़ी अंगद की तरह अडिग खड़ी हो, श्री हनुमान की तरह मर्यादित वीरता को धारण करे, और उस गिलहरी की तरह योगदान दे जो युगों तक प्रेरणा बन गई.
पूज्य गुरुदेव श्री आशुतोष महाराज जी ने कहा है:
“जिसकी जैसी बनी भूमिका, उसको आज निभाना है,
गिद्ध, गिलहरी, वानर, भालू सा जौहर दिखलाना है।”
जब राष्ट्र की बागडोर ऐसे नेतृत्व के हाथों में हो जो धर्म-संस्कृति का संरक्षक हो, जो केवल सत्ता नहीं बल्कि आदर्श का प्रतिनिधि हो, तब संशय या प्रलोभन की बुद्धि को त्याग कर उस नेतृत्व के साथ एकात्म होना ही राष्ट्रधर्म बन जाता है. ऐसा नेतृत्व केवल शासन नहीं करता, वह चेतना को जागृत करता है और समाज को आत्मा के स्तर पर जोड़ता है.
श्री रामचरितमानस में तुलसीदास जी धर्मपरायण राजा की भूमिका को इन शब्दों में चित्रित करते हैं:
"जे नर रहहिं धरम कर लेखा। होहिं सकल भूतन्ह के लेखा॥"
(अर्थ: जो राजा धर्म के मर्यादित मार्ग पर चलते हैं, वे समस्त प्राणियों के लिए आधार व आश्रय बन जाते हैं.)
ऐसा नेतृत्व केवल समय का प्रबंधन नहीं करता, वह युगों का निर्माण करता है. और उस काल में, राष्ट्र के प्रति संपूर्ण निष्ठा ही सच्चा विवेक है.
यह केवल एक लेख नहीं, एक आह्वान है- अपने भीतर के रामायण को पुनः जाग्रत करने का.
(लेखक सामाजिक-सांस्कृतिक जागरण और जेल सुधार क्षेत्र में सक्रिय एक सन्यासी हैं. यह उनके निजी विचार हैं.)