पाकिस्तान को मोहरा बना तुर्की बनना चाहता है अगली परमाणु ताकत!
भारत के कश्मीर में हुए पहलगाम आतंकी हमले के बाद जहां दुनिया भारत के साथ खड़ी नजर आ रही है, वहीं तुर्की पाकिस्तान का खुलकर समर्थन कर रहा है. लेकिन यह समर्थन महज़ एक राजनीतिक रुख नहीं, बल्कि एक बड़ी रणनीतिक चाल है. तुर्की पाकिस्तान के जरिए खुद को एक न्यूक्लियर पावर बनाने की दिशा में बढ़ रहा है.

भारत-पाकिस्तान के बीच फिर एक बार तनाव अपने चरम पर है। जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में हाल ही में हुए आतंकी हमले ने न सिर्फ भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को सतर्क किया है, बल्कि वैश्विक कूटनीति में भी हलचल मचा दी है। इस हमले की गूंज अभी थमी भी नहीं थी कि एक और देश तुर्कीने चुपचाप अपनी बिसात बिछानी शुरू कर दी है।
एक तरफ अमेरिका, फ्रांस, जापान जैसे कई देश भारत के साथ खड़े नजर आए, तो वहीं तुर्की ने इस हमले के तुरंत बाद पाकिस्तान का खुला समर्थन कर दुनिया को यह जता दिया कि वह किस पाले में है। लेकिन असली खेल इससे भी गहरा और खतरनाक है। तुर्की, पाकिस्तान की मदद से खुद को एक न्यूक्लियर सुपरपावर बनाने की तैयारी में जुट चुका है। और यह सिर्फ भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए चिंता की बात है।
पाकिस्तान की आड़ में तुर्की का खतरनाक खेल
हाल ही में तुर्की की एयरफोर्स का C-130 ट्रांसपोर्ट एयरक्राफ्ट कराची में लैंड करता है। ठीक उसके कुछ दिन बाद तुर्की का युद्धपोत TCG Büyükada कराची बंदरगाह पर लंगर डालता है। आधिकारिक बयान आता है कि यह केवल एक साझा सैन्य अभ्यास है। लेकिन सुरक्षा विशेषज्ञों की मानें तो यह कोई आम युद्धाभ्यास नहीं है। तुर्की इस बहाने अपने सैन्य और खुफिया नेटवर्क को पाकिस्तान के साथ गहराई से जोड़ रहा है, जिससे वह अपने भविष्य के न्यूक्लियर मिशन को मजबूती दे सके।
तुर्की-पाक रिश्ते की हकीकत
तुर्की और पाकिस्तान के रिश्ते दशकों पुराने हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इनकी नजदीकी ने एक खतरनाक मोड़ ले लिया है। 2021 में दोनों देशों ने एक अहम रक्षा समझौता किया, जिसमें संयुक्त हथियार निर्माण की योजना भी शामिल थी। इसके बाद तुर्की ने पाकिस्तान को चीन के बाद सबसे बड़ा हथियार आपूर्तिकर्ता बना दिया।
2020 से 2024 के बीच तुर्की के कुल हथियार निर्यात का 10% हिस्सा अकेले पाकिस्तान को गया है। ये आंकड़े साफ बताते हैं कि तुर्की अब सिर्फ एक दोस्ताना देश नहीं, बल्कि पाकिस्तान का रणनीतिक सैन्य साझेदार बन चुका है।
न्यूक्लियर ताकत बनने की तुर्की की ख्वाहिश
तुर्की ने अतीत में भले ही परमाणु अप्रसार संधियों (NPT और CTBT) पर हस्ताक्षर किए हों, लेकिन उसकी हालिया गतिविधियां बताती हैं कि अब वह खुद को न्यूक्लियर ताकत बनाना चाहता है। तुर्की NATO का सदस्य है, और वहां मौजूद İncirlik एयरबेस पर अमेरिका के करीब 50 B61 न्यूक्लियर बम स्टोर हैं। लेकिन ये बम तुर्की के नहीं हैं, और इनपर उसका नियंत्रण भी नहीं है। तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तैय्यप एर्दोआन पहले ही कई बार यह बयान दे चुके हैं कि “अगर किसी को न्यूक्लियर हथियार रखने की इजाजत है, तो हमें क्यों नहीं?”
यही सवाल अब तुर्की को अपने गुप्त न्यूक्लियर मिशन पर आगे बढ़ा रहा है। और इस सफर में उसका सबसे भरोसेमंद साथी है पाकिस्तान। मीडिया रिपोर्ट्स और खुफिया सूत्रों के अनुसार, तुर्की ने पाकिस्तान से सेंट्रीफ्यूज मशीनें खरीदी हैं। ये वही मशीनें हैं जिनका इस्तेमाल यूरेनियम को समृद्ध (Enrich) करने में होता है, जो न्यूक्लियर बम बनाने की दिशा में पहला कदम होता है।
इसके अलावा, तुर्की की कई निजी कंपनियां यूरोप से संवेदनशील टेक्नोलॉजी मंगवाकर पहले पाकिस्तान भेजती हैं, और फिर वहां से इसे तुर्की के रिसर्च बेस में भेजा जाता है। ये एक ऐसा कूटनीतिक चक्रव्यूह है, जिसे पकड़ पाना किसी भी जांच एजेंसी के लिए आसान नहीं है।
तुर्की में इस समय Akkuyu Nuclear Power Plant का निर्माण चल रहा है, जो पूरा होने पर देश की 10% बिजली जरूरत को पूरा करेगा। लेकिन जानकार मानते हैं कि यह प्लांट महज बिजली के लिए नहीं, बल्कि यूरेनियम संवर्धन और संभावित न्यूक्लियर रिसर्च के लिए भी उपयोग किया जा सकता है। सबसे हैरान करने वाली बात ये है कि तुर्की ने कजाकिस्तान के साथ कई सैन्य समझौते किए हैं। और कजाकिस्तान दुनिया का सबसे बड़ा यूरेनियम उत्पादक देश है। यानी तुर्की को यूरेनियम की आपूर्ति कजाकिस्तान से मिल रही है और न्यूक्लियर टेक्नोलॉजी पाकिस्तान से। दो पटरियों पर चलती ये कूटनीति किसी भी दिन एक न्यूक्लियर धमाके के रूप में सामने आ सकती है।
भारत के लिए तुर्की की चाल क्या कहती है?
भारत के लिए ये स्थिति बेहद संवेदनशील है। पाकिस्तान और तुर्की के बीच बढ़ती नजदीकी सिर्फ भारत की सीमाओं पर खतरा नहीं बढ़ा रही, बल्कि वैश्विक मंचों पर भी भारत की रणनीति को चुनौती दे रही है। पिछले कुछ सालों में तुर्की ने संयुक्त राष्ट्र, OIC और कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कश्मीर का मुद्दा उठाकर भारत की विदेश नीति पर वार किया है। अब अगर वह न्यूक्लियर ताकत बन जाता है, तो भारत के लिए पश्चिमी सीमा के साथ-साथ मध्य एशिया में भी एक नया सामरिक मोर्चा खुल सकता है।
तुर्की खुद को इस्लामी दुनिया का अगुवा मानता है। और आज की दुनिया में अगुवाई सिर्फ राजनीतिक बयानबाजी से नहीं, बल्कि सामरिक ताकत से तय होती है। मिडिल ईस्ट में ईरान और इजराइल जैसे देश पहले ही न्यूक्लियर क्षमता की तरफ आगे बढ़ चुके हैं। पाकिस्तान जैसे देश पहले से एटमी हथियारों से लैस हैं। इस्लामी देशों की राजनीति में एक धारणा बन चुकी है कि न्यूक्लियर हथियार वाला देश ही बड़ा नेता माना जाता है। एर्दोआन की नजर इसी कुर्सी पर है, और वह जान चुके हैं कि अगर उन्हें इस दौड़ में आगे बढ़ना है तो पाकिस्तान का साथ पक्का करना होगा।
तुर्की की पाकिस्तान के साथ बढ़ती नजदीकी, मिलिट्री गठजोड़ और न्यूक्लियर महत्वाकांक्षा भारत के लिए एक नए किस्म का खतरा बनकर उभर रही है। यह खतरा गोलियों और बमों से नहीं, बल्कि तकनीक, रणनीति और गुप्त सहयोग से सामने आ रहा है। भारत को अब सिर्फ LOC या LAC की निगरानी नहीं करनी है, बल्कि उसे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कूटनीतिक और सामरिक सतर्कता बढ़ानी होगी।