तोपों की आवाज, मौत का डर, 23 की उम्र और शरीर पर सेना की वर्दी... आखिर कैसे 1959 में भारत पहुंचे दलाई लामा? जानिए उनकी यात्रा की पूरी कहानी
तिब्बती धर्म गुरु दलाई लामा के भारत में बसने की कहानी कई वजहों से काफी खास है. 60 साल पहले जब कड़कड़ाती ठंड का मौसम था. चारों तरफ सिर्फ तोपों की आवाज सुनाई दे रही थी. चीनी सेना ने तिब्बत को घेर रखा था, लेकिन उसी जंग के बीच चुपचाप 23 साल का एक लड़का भिक्षु की वेशभूषा में खुद की जान बचाते हुए आजादी की ओर कदम बढ़ाया. इस दौरान उन्होंने हिमालय में दो हफ्ते तक कड़ी साहसिक यात्रा की. उसके बाद 31 मार्च 1959 को वह भारत की सीमा पर पहुंचे, जहां भारतीय सैनिकों ने उनका स्वागत किया. इस स्टोरी में जानते हैं कि दलाई लामा कैसे चीन और तिब्बत के बीच चल रही जंग के दौरान भारत पहुंचे और कैसे वह भारत में बसें? इस दौरान उन्हें किन-किन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा?

तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा के उत्तराधिकारी का मामला सुर्खियों में बना हुआ है. नए उत्तराधिकारी के चयन को लेकर चीन भारत, अमेरिका और दुनिया के कई अन्य देशों की नजरें बनी हुई है, लेकिन हर कोई यह जानना चाह रहा है कि कैसे दलाई लामा 60 वर्ष पहले कड़कड़ाती ठंड में चीन की तोपों की आवाज के बीच एक भिक्षु के वेशभूषा में खुद को सुरक्षित बचाते हुए भारत पहुंचे और फिर यहीं के रह गए. वह तिब्बत के 14वें दलाई लामा बने. उस दौरान उनकी सिर्फ एक ही मंजिल थी आजादी और खुद की जान बचाना. तो चलिए इस स्पेशल स्टोरी में समझने की कोशिश करते हैं कि कैसे उन्होंने 60 साल पहले चीन-तिब्बत जंग के बीच खुद को सुरक्षित बचाया और कैसे वह भारत की शरण में पहुंचे?
60 साल पहले जंग के बीच खुद को कैसे बचाया?
तिब्बती धर्म गुरु दलाई लामा के भागने की कहानी कई वजहों से काफी खास है. 60 साल पहले जब कड़कड़ाती ठंड का मौसम था. चारों तरफ सिर्फ तोपों की आवाज सुनाई दे रही थी. चीनी सेना ने तिब्बत को घेर रखा था, लेकिन इस जंग के बीच चुपचाप 23 साल का लड़का भिक्षु के वेशभूषा में खुद की जान बचाते हुए आजादी की ओर कदम बढ़ाया. इस दौरान उन्होंने हिमालय में दो हफ्ते तक कड़ी साहसिक यात्रा की. उनकी यात्रा ने तिब्बत के भविष्य को एक नया आकार दिया और चीन के साथ भारत की कूटनीतिक संतुलन को एक चुनौती भी मिली. दरअसल, साल 1950 में चीन सेना द्वारा PLA की तरफ से तिब्बत पर कब्जा करने के लिए तनाव बढ़ गया. हालांकि, साल 1951 में 17 सूत्रीय समझौते पर चीनी संप्रभुता के तहत तिब्बत के लिए स्वायत्तता का वादा किया गया था, लेकिन उस दौरान एक निर्णायक मोड़ आया और सैन्य मुख्यालय में नृत्य प्रदर्शन में भाग लेने के लिए दलाई लामा को आमंत्रित किया गया, लेकिन इसके लिए एक शर्त रखी गई.
'तिब्बत के लिए खतरे की घंटी बजी'
एक चीनी जनरल ने दलाई लामा को सेना के मुख्यालय में बिना अंगरक्षक के नृत्य प्रदर्शन में जैसे ही आमंत्रित किया. वैसे ही तिब्बती सत्ता के लिए खतरे की घंटी बज गई. उस दौरान खबरें आईं कि तिब्बती नेता को भगवा करने या उन्हें अपहरण करने का प्लान बनाया जा रहा है. 10 मार्च साल 1959 को लाखों तिब्बतियों ने दलाई लामा की सुरक्षा के खातिर नोरोबुलिंगका पैलेस के चारों ओर मानव मोर्चाबंदी कर दी. इसके बाद तिब्बती विद्रोहियों और चीनी सैनिकों के बीच तनाव बढ़ गया. नोरोबुलिंगका पर जमकर बमबारी हुई और दलाई लामा ने प्लान बनाया कि अब भागने का समय आ गया है.
'तिब्बती सेना की वर्दी पहने भाग निकले दलाई लामा'
17 मार्च साल 1959 को अंधेरे की आड़ में दलाई लामा तिब्बती सेना की वर्दी पहने नोरोबुलिंगका से भाग निकले. उनके साथ कैबिनेट, अंगरक्षक और परिवार के सदस्य थे. चीनी गश्ती से बचते हुए वह रात को हिमालय को पार कर गए. उनका दल चीनी चौकियों और बर्फीली चादरों के बीच निकला. इस दौरान स्थानीय प्रतिरोध और प्राचीन प्रार्थना के तहत बिना किसी उचित नक्शे की यात्रा पर चलते रहें. ऐसा माना जाता है कि बौद्ध भिक्षुओं की प्रार्थना पर चीनी विमान से छुपने के लिए कोहरा निकलता था.
31 मार्च 1959 को हुआ भारत में प्रवेश
15 दिन से ज्यादा की यात्रा के बाद 31 मार्च 1959 को दलाई लामा अपने परिवार और कैबिनेट सदस्यों के साथ मैकमोहन रेखा पार करते हुए अरुणाचल प्रदेश के खेंजीमाने दर्रे पहुंचे. उस दौरान उनकी मुलाकात भारतीय सैनिकों के साथ हुई, जहां अगले दिन सभी भारतीय अधिकारियों ने औपचारिक स्वागत करते हुए उन्हें तवांग ले गए. उस दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर एक बहुत बड़ा दबाव था कि अगर उन्होंने दलाई लामा को शरण दिया, तो चीन भड़क सकता है, लेकिन इन सारी चिंता को छोड़ते हुए, उन्हें 3 अप्रैल को आधिकारिक तौर पर शरण देने की पुष्टि की.
18 अप्रैल को दिया भारतीय धरती पर पहला बयान
दलाई लामा तवांग से असम के तेजपुर पहुंचे. 18 अप्रैल को उन्होंने आधिकारिक तौर पर भारत की धरती से अपना पहला बयान दिया. उन्होंने चीन की आक्रामकता की निंदा की और भारत के शरण देने पर आभार जताया. दलाई लामा पहले मसूरी में थे, उसके बाद वह धर्मशाला के मैक्लोडगंज चले गए. वहां पर उन्होंने तिब्बत की निर्वासित सरकार, स्कूल मठ और सांस्कृतिक संस्थाओं की स्थापना की.
अहिंसा और संवाद के लिए मिला नोबेल पुरस्कार
साल 1989 में अहिंसा और संवाद के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को देखते हुए नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया. वर्तमान में वह 90 वर्ष की उम्र में धर्मशाला में रहते हैं, उनको शरण देने की वजह से भारत-चीन के रिश्ते में दरार पैदा हुआ. चीन ने इसका कड़ा विरोध किया.