'आपातकाल देश में नहीं, बल्कि कांग्रेस में...', आपातकाल के 50 साल पूरे, आचार्य प्रमोद कृष्णम ने अपनी पुरानी पार्टी पर बोला तीखा हमला, दिखाया आईना
25 जून 1975 को देश में लगाए गए आपातकाल के 50 साल पूरे हो गए हैं. इस मौके पर कल्कि पीठाधीश्वर आचार्य प्रमोद कृष्णम ने अपनी पुरानी पार्टी कांग्रेस पर तीखा हमला बोला और कहा कि आज भी आपातकाल जिंदा है, लेकिन कांग्रेस में.

25 जून 1975 की वो रात जब भारत का लोकतंत्र सिहर उठा. इस दिन संविधान को कुचला गया, अभिव्यक्ति की आजादी को दबाया गया और लोकतंत्र को जंजीरों में जकड़ा गया. आधी रात को रेडियो पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की थी. बीजेपी इसे संविधान हत्या दिवस के रूप में मना रही है. प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा से लेकर पक्ष-विपक्ष के लोगों ने इस मौके पर अपने अनुभव साझा किए और दर्द बयां किया है.
आपातकाल के 50 साल पूरे, आचार्य प्रमोद कृष्णम ने बोला कांग्रेस पर हमला
पूर्व कांग्रेस नेता आचार्य प्रमोद कृष्णम ने बुधवार को आपातकाल के 50 साल पूरे होने पर कहा कि वैसे तो आपातकाल किसी भी लोकतांत्रिक देश में लगाई जाए, इसकी गुंजाइश न के बराबर है, लेकिन अगर किसी भी लोकतांत्रिक देश में इमरजेंसी लगाई जा रही है, तो समझिए वहां पर अब लोकतंत्र बचा ही नहीं है.
'आपातकाल आज भी है, लेकिन कांग्रेस में'
आचार्य प्रमोद कृष्णम ने इस दौरान कांग्रेस को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि आपातकाल अब भी है, लेकिन यह आपातकाल "देश में नहीं, बल्कि कांग्रेस में" है. यह बात कांग्रेस के लोगों को भली भांति समझ भी आ रही है, इसलिए देश-प्रदेश की जनता अब इस पार्टी को सिरे से खारिज कर रही है. लोगों के बीच में अब इस पार्टी की विश्वसनीयता पूरी तरह खत्म हो चुकी है.
‘आपातकाल इस देश का सबसे काला दिन’
उन्होंने कहा कि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में आप किसी भी मुद्दे को लेकर अपनी बात रख सकते हैं. आप किसी मुद्दे पर अपना विरोध जता सकते हैं या उस पर समर्थन कर सकते हैं. यह लोकतंत्र की खूबी है, लोकतंत्र की सुंदरता है. इसी से किसी देश में लोकतंत्र मजबूत होता है. लोगों का लोकतंत्र पर विश्वास बढ़ता है. मौजूदा समय में देश में ऐसी स्थिति बनी हुई है, जिससे यह साफ जाहिर होता है कि लोकतंत्र बहाल है, क्योंकि लोगों को अपनी बात कहने का पूरा अधिकार है, लेकिन आपातकाल के दिनों में ऐसा नहीं था. आपातकाल इस देश का सबसे काला दिन था, जिसे कभी नहीं भुलाया जा सकता है.
उन्होंने कहा कि पूरी दुनिया इस बात को जानती है कि इंदिरा गांधी ने आपातकाल क्यों लगाया था. पूरी दुनिया इस बात से भली भांति अवगत है. हर साल जब कभी 25 जून आता है, तो लोग इस पर खुलकर अपनी बात रखते हैं, इस पर बड़े संपादकीय लिखते हैं, खुलकर अपने विचार प्रकट करते हैं. अब देश में लोकतंत्र है, तो सभी को अपनी बात रखने का पूरा हक है. यह लोकतंत्र की खूबसूरती है और बतौर नागरिक हमारा यह कर्तव्य बनता है कि हम इस खूबसूरती को बरकरार रखें.
25 जून, भारतीय लोकतंत्र के सबसे काले दिन के 50 वर्ष: पूरे घटनाक्रम पर एक नज़र
25 जून 1975 की वो रात जब भारत का लोकतंत्र सिहर उठा. इस दिन संविधान को कुचला गया, अभिव्यक्ति की आजादी को दबाया गया और लोकतंत्र को जंजीरों में जकड़ा गया. आधी रात को रेडियो पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा की थी.
लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व हुआ था आंदोलन
देश में समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में भ्रष्टाचार और महंगाई के खिलाफ आंदोलन तेज हो रहा था. इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा की लोकसभा सदस्यता को रद्द कर दिया था, जिससे उनकी कुर्सी खतरे में पड़ गई. जयप्रकाश नारायण जैसे नेताओं की आवाज जनता को एकजुट कर रही थी. ऐसे में आपातकाल एक ऐसा हथियार बन गया, जिसने लोकतंत्र को बंधक बना लिया.
इस तनाव के बीच 25 जून की रात को इंदिरा गांधी ने संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की घोषणा कर दी. यह फैसला बिना कैबिनेट की मंजूरी के रातोंरात लिया गया. राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने मध्यरात्रि में इस पर हस्ताक्षर किए और देश आपातकाल के अंधेरे में डूब गया.
‘आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों पर लगा था ताला’
आपातकाल के दौरान नागरिकों के मौलिक अधिकारों का निलंबन कर दिया गया. बोलने की आजादी छीन ली गई. प्रेस पर सेंसरशिप का ताला लग गया. अखबारों में छपने वाली हर खबर को सरकारी सेंसर की मंजूरी लेनी पड़ती थी. कई पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया और समाचार पत्रों के दफ्तरों पर ताले जड़ दिए गए.
लोग सच जानने के लिए तरस गए. उस समय की एक मशहूर कहानी है कि कुछ अखबारों ने सेंसरशिप के विरोध में अपने संपादकीय पन्ने खाली छोड़ दिए.
पूरा विपक्ष जेल में था!
विपक्षी नेताओं जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडीस को रातोंरात जेल में कैद कर लिया गया. जेलें इतनी भर गईं कि जगह कम पड़ने लगी. पत्रकारों, लेखकों और यहां तक कि कलाकारों को भी नहीं बख्शा गया. उस समय की तमाम मशहूर हस्तियों को दमन का शिकार बनना पड़ा और आपातकाल का दंश झेलना पड़ा.
गांव-गांव तक आपातकाल की आहट पहुंची. आपातकाल सिर्फ अपराधियों के खिलाफ नहीं, बल्कि हर उस आवाज के खिलाफ थी, जो सत्ता से सवाल पूछती थी. इंदिरा गांधी के इस तानाशाही रवैये के खिलाफ गली, नुक्कड़, चौक-चौराहे पर लोकतंत्र की बहाली के नारे लगाए जाने लगे.
21 मार्च, 1977 को हुआ पूरी तरह से आपातकाल का अंत!
21 महीने तक चले इस आपातकाल का अंत 21 मार्च, 1977 को हुआ, जब इंदिरा गांधी ने चुनाव की घोषणा की. शायद उन्हें भरोसा था कि जनता उनके साथ है. लेकिन, 1977 के चुनाव में जनता ने कांग्रेस को करारी शिकस्त दी. जनता पार्टी की सरकार बनी.
इस जीत में उन लाखों लोगों का योगदान था, जिन्होंने जेलों में यातनाएं झेली, सड़कों पर प्रदर्शन किए और अपनी आवाज बुलंद की. जनता ने इंदिरा गांधी की सरकार को सत्ता से बेदखल कर दिया और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी.