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यौन संबंध बनाने की उम्र नहीं घटा सकते, केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में तर्क के साथ दिया जवाब

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को बताया है कि यौन संबंधों के लिए सहमति की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष से कम नहीं की जा सकती. यह जवाब एक याचिका पर आया, जिसमें उम्र घटाने की मांग की गई थी. सरकार ने POCSO और भारतीय न्याय संहिता का हवाला देते हुए कहा कि यह प्रावधान नाबालिगों को यौन शोषण से बचाने के लिए जरूरी है. हालांकि, किशोरों के बीच सहमति से बने प्रेम संबंधों में कोर्ट न्यायिक विवेक का प्रयोग कर सकता है.

25 Jul, 2025
( Updated: 25 Jul, 2025
06:52 PM )
यौन संबंध बनाने की उम्र नहीं घटा सकते, केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में तर्क के साथ दिया जवाब
File Photo

भारत की न्याय व्यवस्था में एक बेहद संवेदनशील और सामाजिक रूप से महत्वपूर्ण मुद्दे पर बहस ने एक नई दिशा ले ली है. सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका के तहत यह मांग की गई कि यौन संबंधों के लिए सहमति की न्यूनतम उम्र 18 वर्ष से घटाकर कम की जाए. लेकिन केंद्र सरकार ने इस पर बेहद स्पष्ट और सख्त रुख अपनाते हुए अदालत को सूचित किया कि यह उम्र सीमा किसी भी हाल में 18 वर्ष से कम नहीं की जा सकती. सरकार ने कहा कि यह न सिर्फ कानून का सवाल है, बल्कि बच्चों की सुरक्षा, गरिमा और मानसिक विकास से जुड़ा हुआ मुद्दा भी है.

बच्चों की सुरक्षा से नहीं होगा समझौता: केंद्र

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल करते हुए कहा कि मौजूदा प्रावधान यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण अधिनियम (POCSO) और भारतीय न्याय संहिता (BNS) के तहत नाबालिगों को शोषण से बचाने के लिए तैयार किए गए हैं. इन कानूनों का आधार यह मान्यता है कि 18 वर्ष से कम आयु के बच्चे परिपक्व रूप से यौन सहमति देने की स्थिति में नहीं होते. इसलिए यह उम्र सीमा न सिर्फ कानूनी सुरक्षा देती है, बल्कि एक नैतिक और सामाजिक बुनियाद भी तय करती है.

सहमति की उम्र में बदलाव क्यों नहीं?

सरकार ने अपने बयान में इस बात को साफ किया कि यौन सहमति के लिए निर्धारित 18 साल की उम्र कोई संयोग नहीं, बल्कि वर्षों के सामाजिक, कानूनी और संवैधानिक विमर्श का परिणाम है. अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल ऐश्वर्या भाटी ने कहा कि यह निर्णय भारतीय संविधान के तहत बच्चों को मिले विशेष संरक्षण को ध्यान में रखकर लिया गया है. यह सिर्फ एक संख्या नहीं, बल्कि बाल अधिकारों की सुरक्षा का मजबूत आधार है. सरकार का मानना है कि अगर यह उम्र सीमा घटाई जाती है, तो यह उन दरिंदों को कानूनी बचाव देगा, जो बच्चों की मासूमियत और भरोसे का फायदा उठाते हैं.

कोर्ट में विवेक की गुंजाइश भी स्वीकार

हालांकि केंद्र ने यह भी माना कि विशेष परिस्थितियों में न्यायपालिका अपने विवेक का प्रयोग कर सकती है. खासकर उन मामलों में जहां किशोरों के बीच आपसी सहमति से प्रेम संबंध बना हो और दोनों की उम्र 18 के करीब हो. इस स्थिति में 'close-in-age' अपवाद पर विचार किया जा सकता है, जिससे निर्दोष किशोरों को आपराधिक मुकदमों से राहत मिल सके. लेकिन सरकार ने स्पष्ट किया कि इस तरह की छूट सिर्फ सीमित और विशेष परिस्थितियों में ही दी जा सकती है.

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी है अहम

सरकार ने अपने हलफनामे में यह भी बताया कि सहमति की उम्र में ऐतिहासिक रूप से कई बदलाव हुए हैं. 1860 में यह उम्र सिर्फ 10 वर्ष थी, जिसे धीरे-धीरे बढ़ाकर 1978 में 18 वर्ष तक लाया गया. यह बदलाव समाज में बच्चों की सुरक्षा और मानसिक विकास को लेकर बढ़ती समझ और संवेदनशीलता को दर्शाते हैं. ऐसे में वर्तमान व्यवस्था को कमजोर करना वर्षों की मेहनत पर पानी फेरने जैसा होगा.

अपराधियों को न मिले कानून का सहारा

केंद्र ने यह चेतावनी भी दी कि अगर सहमति की उम्र घटाई जाती है, तो यह अपराधियों को बचाव का रास्ता दे सकती है. आंकड़ों के अनुसार 50% से अधिक बाल यौन अपराध ऐसे लोगों द्वारा किए जाते हैं, जो बच्चों के करीबी होते हैं. जैसे रिश्तेदार, शिक्षक, पड़ोसी या पारिवारिक मित्र. ऐसे मामलों में 'सहमति' की दलील देना न सिर्फ कानून के साथ धोखा होगा, बल्कि पीड़ित बच्चे के खिलाफ एक प्रकार की हिंसा भी होगी.

बच्चों की गरिमा की रक्षा जरूरी

सरकार ने इस बात पर भी जोर दिया कि बच्चों की मानसिक स्थिति और सामाजिक स्थिति को देखते हुए सहमति की उम्र को 18 से कम करना उचित नहीं होगा. जब अपराधी कोई निकट संबंधी हो, तो बच्चा न तो विरोध कर सकता है और न ही आसानी से शिकायत दर्ज करा सकता है. ऐसे में यदि सहमति के आधार पर अपराधी को राहत मिलती है, तो यह बच्चे की गरिमा और सुरक्षा के मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन होगा.

बताते चलन कि इस पूरे मामले का केंद्रबिंदु यह है कि भारत का कानून सिर्फ दोषियों को दंडित करने के लिए नहीं, बल्कि बच्चों को हर प्रकार के मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक शोषण से सुरक्षित रखने के लिए बना है. यौन सहमति की उम्र को 18 वर्ष बनाए रखना बाल सुरक्षा के मूल सिद्धांतों के अनुरूप है. न्यायपालिका के पास विवेकाधिकार जरूर है, लेकिन समाज को यह नहीं भूलना चाहिए कि कानून का पहला कर्तव्य बच्चों की मासूमियत की रक्षा करना है. चाहे वे किसी भी वर्ग, धर्म या क्षेत्र से हों.

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