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स्तन ढकने पर जब भारतीय महिलाओं को चुकाना होता था टैक्स, जानें क्या था 'मुलक्करम' टैक्स?

मुलक्करम, एक ऐतिहासिक कर था जो त्रावणकोर (वर्तमान केरल) में महिलाओं पर उनके स्तन ढकने के लिए लगाया जाता था। यह कर निचली जातियों की महिलाओं पर उनके समाजिक स्तर को नीचे रखने और उन्हें अपने स्तन खुले रखने के लिए मजबूर करने का एक तरीका था।
स्तन ढकने पर जब भारतीय महिलाओं को चुकाना होता था टैक्स, जानें क्या था 'मुलक्करम' टैक्स?
भारतीय समाज में जातिगत भेदभाव और अमानवीय प्रथाओं की कहानी सदियों पुरानी है। ऐसी ही एक भयावह प्रथा दक्षिण भारत के त्रावणकोर राज्य में प्रचलित थी, जिसे 'मुलक्करम' यानी 'स्तन टैक्स' कहा जाता था। यह प्रथा इतनी क्रूर और अपमानजनक थी कि इसे सुनकर ही आज के समाज का हर इंसान सिहर उठेगा। यह कहानी केवल महिलाओं के अधिकारों के हनन की नहीं, बल्कि जातिगत भेदभाव और सामाजिक अन्याय की चरम सीमा को दर्शाती है। आइए, इस काले अध्याय को विस्तार से समझें, जो इतिहास के पन्नों में शर्म का प्रतीक है।
क्या था 'मुलक्करम' टैक्स?
19 वीं सदी की शुरुआत में भारत के त्रावणकोर रियासत के राजा ने निचली जातियों की महिलाओं पर 'मुलक्करम' नाम का एक कर लगाया था। त्रावणकोर राज्य में दलित और निम्न जातियों की महिलाओं को अपने शरीर के ऊपरी हिस्से को ढकने के लिए टैक्स देना पड़ता था। यह नियम ब्राह्मणवादी व्यवस्था का हिस्सा था, जिसके अनुसार, समाज की निचली जातियों की महिलाओं को अपनी छाती पर वस्त्र धारण करने का अधिकार नहीं था। अगर कोई महिला अपनी गरिमा बनाए रखने और शरीर ढकने का प्रयास करती, तो उसे 'मुलक्करम' नामक कर चुकाना पड़ता। यह कर महिलाओं के स्तनों के आकार के आधार पर तय किया जाता था, जो इस प्रथा की अमानवीयता को और भी उजागर करता है।

यह कर कपड़ों पर सामाजिक रीति-रिवाजों को बनाए रखने के लिए लगाया गया था, ताकि किसी व्यक्ति की जाति की स्थिति को केवल उसके पहनावे से पहचाना जा सके। केवल उच्च जातियों की महिलाओं को ही 'मुलक्कचा' (छाती का कपड़ा) जैसी चीजें पहनने की अनुमति होती थी। स्तन-कर का उद्देश्य जाति संरचना को बनाए रखना था और कुछ नहीं। कपड़ों को धन और समृद्धि का प्रतीक माना जाता था और गरीब और निचली जातियां इसके हकदार नहीं थीं। यह नियम समाज में जातिगत विभाजन को बनाए रखने और निम्न जातियों को उनके "स्थान" पर रखने के लिए बनाया गया था। इस व्यवस्था के शिकार न केवल महिलाएं, बल्कि पुरुष भी थे।
नांगेली की कहानी: विरोध की मशाल
लोककथाओं के अनुसार, नांगेली नामक एक महिला से त्रावणकोर के प्रवाथियार यानी ग्राम अधिकारी जब मुलक्करम वसूलने के लिए आए। तो नांगेली ने कर देने से इनकार कर दिया और खुलेआम अपनी छाती ढक ली। यह त्रावणकोर के अधिकारियों के लिए एक बड़ा अपमान था। इस विरोध के बाद, नांगेली को जबरन दंडित किया गया। अधिकारियों ने उसकी छाती काट दी, जिससे उसकी मौत हो गई।  कहते है नांगेली को दरवाजे पर खून से लथपथ मरता देख उसके पति ने भी आत्महत्या कर ली। नांगेली के इस बलिदान ने पूरे राज्य में हलचल मचा दी। उसकी शहादत ने लोगों को संगठित किया और इस प्रथा के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन खड़ा हुआ।
कैसे हुआ इस प्रथा का अंत?
1859 में ब्रिटिश गवर्नर चार्ल्स ट्रेवेलियन ने इस प्रथा को समाप्त करने का आदेश दिया। हालांकि, इसे पूरी तरह से समाप्त होने में कई साल लग गए। 1865 तक, नाडार समुदाय की महिलाओं ने ऊपरी वस्त्र पहनकर विरोध प्रदर्शन शुरू किया। अंग्रेजी प्रशासन और मिशनरियों के हस्तक्षेप के कारण त्रावणकोर राज्य को इस प्रथा को समाप्त करना पड़ा।

'मुलक्करम' जैसी प्रथाएं हमारे समाज के अतीत की कड़वी सच्चाई हैं। यह कहानी केवल दलित महिलाओं की पीड़ा नहीं, बल्कि हर उस आवाज का प्रतीक है, जिसने अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ी। आज जब हम समानता और अधिकारों की बात करते हैं, तो हमें यह याद रखना चाहिए कि इन मूलभूत अधिकारों के लिए न जाने कितने लोगों ने संघर्ष किया और अपने जीवन का बलिदान दिया।

त्रावणकोर का 'मुलक्करम' कानून इतिहास में अन्याय का एक प्रतीक है। नांगेली जैसी महिलाओं की शहादत ने यह साबित कर दिया कि अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने में एक व्यक्ति भी समाज में बड़ा बदलाव ला सकता है। यह कहानी हमें प्रेरणा देती है कि हम अपने अधिकारों के लिए खड़े हों और समाज में हर प्रकार के भेदभाव को समाप्त करें।

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