क्या ब्रिटिश साजिश के कारण बलूचिस्तान आज भी अशांत है?
बलूचिस्तान कभी भारत में शामिल होना चाहता था, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने एक गहरी साजिश के तहत इसे पाकिस्तान में शामिल करवा दिया। 1947 में जब भारत और पाकिस्तान का बंटवारा हुआ, तब बलूच नेताओं की इच्छा थी कि वे भारत का हिस्सा बनें, लेकिन ब्रिटिश सत्ता और पाकिस्तान की रणनीति ने इस सपने को पूरा नहीं होने दिया।

जब ब्रिटिश हुकूमत भारत को आजादी दे रही थी, तब उन्होंने जाते-जाते एक ऐसी साजिश रची, जिससे यह उपमहाद्वीप आज भी अशांत बना हुआ है। विभाजन की इस चाल में केवल भारत और पाकिस्तान के बीच की खाई ही नहीं बढ़ी, बल्कि कई ऐसे इलाके भी जबरन पाकिस्तान में मिला दिए गए, जो या तो स्वतंत्र रहना चाहते थे या भारत में विलय की मांग कर रहे थे। इन्हीं में से एक था बलूचिस्तान।
बलूचिस्तान, एक स्वतंत्र राज्य बनने की चाह
बलूचिस्तान, जो आज पाकिस्तान का सबसे बड़ा प्रांत है, ऐतिहासिक रूप से एक स्वतंत्र क्षेत्र था। यहां की चार प्रमुख रियासतें – कालात, मकरान, लासबेला और खारान – 19वीं सदी में ब्रिटिश हुकूमत के अधीन आ गईं। हालांकि, 1947 में जब भारत और पाकिस्तान का विभाजन हुआ, तब बलूचिस्तान ने स्वतंत्र रहने की इच्छा जताई। उस समय बलूचिस्तान के शासक खान ऑफ कालात, मीर अहमद यार खान, ने स्पष्ट कर दिया था कि वे पाकिस्तान का हिस्सा नहीं बनना चाहते। उन्होंने खुद को स्वतंत्र घोषित किया और ब्रिटिश सरकार भी इस पर सहमत थी।
पाकिस्तान की जबरन घुसपैठ
ब्रिटिश सरकार ने बलूचिस्तान को स्वतंत्र राज्य के रूप में मान्यता दे दी थी, लेकिन पाकिस्तान इस फैसले को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। मार्च 1948 में, पाकिस्तान की सेना ने बलूचिस्तान पर हमला कर दिया और इसे जबरन अपने नियंत्रण में ले लिया। खान ऑफ कालात को मजबूर किया गया कि वे पाकिस्तान में विलय की संधि पर हस्ताक्षर करें। यह विलय बलूचों की मर्जी के खिलाफ था और इसके बाद से ही वहां अलगाववाद की चिंगारी जल उठी।
बलूचिस्तान के पाकिस्तान में जबरन विलय के बाद वहां के लोगों ने इसका विरोध करना शुरू कर दिया। 1948, 1958, 1973 और 2004 में बड़े पैमाने पर विद्रोह हुए। पाकिस्तान सरकार ने हर बार सैन्य कार्रवाई करके इन विद्रोहों को कुचलने की कोशिश की, लेकिन बलूचों की स्वतंत्रता की मांग कभी खत्म नहीं हुई।
बलूचिस्तान प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर क्षेत्र है। यहां गैस, तेल, सोना और तांबे के बड़े भंडार हैं। लेकिन पाकिस्तान सरकार पर आरोप है कि वह यहां के संसाधनों का शोषण कर रही है और स्थानीय लोगों को उनका उचित हक नहीं दे रही है। बलूच जनता खुद को पाकिस्तान का हिस्सा मानने को तैयार नहीं है और वहां आज भी विद्रोही गुट सक्रिय हैं।
ब्रिटिश साजिश, भारत को विकल्प न देना
बलूचिस्तान ही नहीं, बल्कि अफगानिस्तान की सीमा से सटे खैबर पख्तूनख्वा और सिंध के कुछ हिस्से भी भारत के साथ जाना चाहते थे। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने इन इलाकों में जनमत संग्रह का ऐसा खेल खेला, जिससे लोगों को पाकिस्तान या स्वतंत्रता के विकल्प के बजाय केवल ब्रिटिश शासन या पाकिस्तान का ही विकल्प दिया गया।
खैबर पख्तूनख्वा के प्रमुख नेता खान अब्दुल गफ्फार खान, जिन्हें "सरहदी गांधी" भी कहा जाता था, वो भी भारत में विलय के पक्ष में थे, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उनकी एक न सुनी। 1947 में हुए जनमत संग्रह में मात्र 15% लोगों ने ही मतदान किया, क्योंकि कांग्रेस और खुदाई खिदमतगार ने इसका बहिष्कार किया था। परिणामस्वरूप, यह क्षेत्र पाकिस्तान में मिल गया। वर्तमान बलूचिस्तान की बात करें तो आज भी बलूचिस्तान में अलगाववादी आंदोलन तेज है। बलूच लिबरेशन आर्मी (BLA), बलूच रिपब्लिकन आर्मी (BRA) और अन्य संगठनों ने पाकिस्तान के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष छेड़ा हुआ है। आए दिन वहां पाकिस्तान सेना और विद्रोहियों के बीच झड़पें होती रहती हैं। बलूच लोगों पर पाकिस्तान सरकार द्वारा किए जा रहे अत्याचारों को लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी आवाज उठने लगी है।
बलूचिस्तान का संघर्ष यह दिखाता है कि कैसे ब्रिटिश हुकूमत ने अपने फायदे के लिए विभाजन की चाल चली और भारत को कमजोर करने की कोशिश की। अगर तब बलूचिस्तान को भारत में शामिल होने का विकल्प मिलता, तो आज की स्थिति शायद कुछ और होती। यह इतिहास हमें सिखाता है कि किसी भी राष्ट्र की संप्रभुता और एकता के लिए कूटनीतिक चालों को समझना और समय पर सही कदम उठाना जरूरी होता है।
बलूचिस्तान आज भी जल रहा है। वहां के लोग पाकिस्तान की दमनकारी नीतियों के खिलाफ आवाज उठा रहे हैं। लेकिन अब ऐसे में सवाल यह है कि क्या अंतरराष्ट्रीय समुदाय बलूचों की आवाज सुनेगा? क्या पाकिस्तान अपने ही नागरिकों के साथ न्याय करेगा? और क्या भारत इस इतिहास से कोई सीख लेगा?