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चीन के लिए नई चुनौती, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के बीच रेयर अर्थ मिनरल्स को लेकर हुई डील, अब क्या करेंगे शी जिनपिंग?

अगर भारत को वैश्विक मंच पर निर्णायक भूमिका निभानी है, तो उसे अब स्पष्ट रणनीति बनानी होगी चाहे वह अपने खनिज संसाधनों का बेहतर उपयोग हो, अंतरराष्ट्रीय साझेदारों से सहयोग हो, या फिर चीन के साथ व्यावसायिक संतुलन की नई परिभाषा तय करना हो.

21 Oct, 2025
( Updated: 05 Dec, 2025
10:56 PM )
चीन के लिए नई चुनौती, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के बीच रेयर अर्थ मिनरल्स को लेकर हुई डील, अब क्या करेंगे शी जिनपिंग?
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Rare Earth Minerals Deal: 20 अक्टूबर को अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के बीच एक बड़ा आर्थिक और रणनीतिक समझौता हुआ, जो वैश्विक सप्लाई चेन और इंडो-पैसिफिक क्षेत्र की भू-राजनीतिक स्थिति को प्रभावित कर सकता है. यह डील विशेष रूप से रेयर अर्थ और क्रिटिकल मिनरल्स को लेकर हुई है, जो इलेक्ट्रिक वाहन, जेट इंजन, रक्षा उपकरण, और हाई-टेक उत्पादों के निर्माण में बेहद जरूरी होते हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीज़ ने व्हाइट हाउस में इस समझौते पर हस्ताक्षर किए. इस डील की कुल वैल्यू 8.5 बिलियन डॉलर (लगभग ₹71,000 करोड़) बताई गई है. समझौते के अनुसार, अगले छह महीनों में दोनों देश मिलकर खनन और प्रोसेसिंग से जुड़ी परियोजनाओं में निवेश करेंगे. इसके साथ-साथ क्रिटिकल मिनरल्स के लिए न्यूनतम मूल्य यानी Price Floor तय किया गया है, जिसकी मांग पश्चिमी देश लंबे समय से कर रहे थे, ताकि बाजार में चीनी दबदबे को संतुलित किया जा सके.

चीन की बढ़ती सख्ती और अमेरिका की रणनीति

गौरतलब है कि दुनिया में सबसे ज़्यादा रेयर अर्थ मिनरल्स का भंडार चीन के पास है. चीन ने हाल के महीनों में इन मिनरल्स के निर्यात पर नियंत्रण और शर्तें कड़ी कर दी हैं. इससे वैश्विक उद्योगों को झटका लगा है क्योंकि EVs से लेकर चिप निर्माण तक में इन संसाधनों की अहम भूमिका है. अमेरिका और उसके सहयोगी देश इसे एक रणनीतिक खतरे की तरह देख रहे हैं. यही कारण है कि अमेरिका अब अपने QUAD सहयोगी ऑस्ट्रेलिया की ओर रुख कर रहा है, जिससे उसकी चीन पर निर्भरता कम हो सके. ऑस्ट्रेलिया इस क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण और भरोसेमंद भागीदार बनकर उभरा है. अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप ने साफ कहा कि यह समझौता करीब चार से पांच महीने की गहन बातचीत के बाद पूरा हुआ है, जो दिखाता है कि अमेरिका इस दिशा में कितनी गंभीरता से कदम उठा रहा है.

भारत के सामने बढ़ती रणनीतिक चुनौती

भारत के लिए यह समझौता एक चेतावनी और एक अवसर दोनों है. अमेरिका यदि अपने हितों के लिए ऑस्ट्रेलिया से संसाधन हासिल कर सकता है, तो भारत क्यों नहीं अपने लिए विकल्प तलाश सकता, चाहे वह चीन के साथ डील क्यों न हो? हालांकि भारत में अक्सर यह धारणा रहती है कि चीन से सहयोग करना रणनीतिक जोखिम है, लेकिन जब वही कदम अमेरिका जैसे देश उठा रहे हैं, तो भारत को भी अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा. भारत के पास कुछ महत्वपूर्ण क्रिटिकल मिनरल्स हैं, लेकिन उनके दोहन और प्रोसेसिंग की दिशा में पर्याप्त निवेश और टेक्नोलॉजी नहीं है. भारत की चीन पर निर्भरता अभी भी इलेक्ट्रॉनिक्स, सोलर पैनल्स और दवाओं के कच्चे माल जैसे क्षेत्रों में बनी हुई है। ऐसे में भारत को दो विकल्पों में से एक चुनना होगा या तो वह वैश्विक राजनीति के अनुसार चलकर नए साझेदार बनाए, या फिर अपने संसाधनों के संरक्षण और विकास के लिए कठोर रणनीतिक निर्णय ले.

इंडो-पैसिफिक में शक्ति संतुलन और भारत की भूमिका

यह समझौता केवल खनिज व्यापार तक सीमित नहीं है. अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया ने रक्षा उपकरणों, पनडुब्बी परियोजनाओं और सैन्य सहयोग पर भी बात की है. इसका साफ संकेत है कि यह डील इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में चीन के प्रभाव को संतुलित करने की एक बड़ी कड़ी है. ऐसे में भारत, जो खुद QUAD का एक हिस्सा है, के लिए यह जरूरी हो जाता है कि वह इस क्षेत्रीय संतुलन में एक सक्रिय और निर्णायक भूमिका निभाए. यदि भारत इस मौके पर पीछे रहता है, तो वह रणनीतिक रूप से खुद को एक कमजोर स्थिति में डाल सकता है. इसके विपरीत, यदि वह ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और जापान जैसे QUAD साझेदारों के साथ मिलकर संसाधन, टेक्नोलॉजी और सप्लाई चेन विकसित करता है, तो उसे न केवल आर्थिक बल्कि सामरिक रूप से भी लाभ मिलेगा.

अब निर्णायक कदम उठाने का समय

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अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के बीच हुआ यह समझौता केवल एक व्यापारिक डील नहीं, बल्कि एक रणनीतिक नीति है, जो आने वाले वर्षों में वैश्विक सत्ता संतुलन को प्रभावित कर सकती है. भारत के लिए यह समय आत्ममंथन का है. क्या वह केवल चीन से दूरी बनाकर अपनी सुरक्षा सुनिश्चित करना चाहता है, या वैश्विक नीतियों में भागीदारी कर अपनी जगह मजबूत करना चाहता है?
अगर भारत को वैश्विक मंच पर निर्णायक भूमिका निभानी है, तो उसे अब स्पष्ट रणनीति बनानी होगी चाहे वह अपने खनिज संसाधनों का बेहतर उपयोग हो, अंतरराष्ट्रीय साझेदारों से सहयोग हो, या फिर चीन के साथ व्यावसायिक संतुलन की नई परिभाषा तय करना हो.

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