सूर्यास्त के बाद जो यहां रुका पत्थर बन गया, Pakistan बॉर्डर के नज़दीक Kiradu का ‘शापित’ सच
खास बात ये है कि यहां अंदर अजीब सा सन्नाटा पसरा रहता है। दिन के उजाले में, तपती दोपहरी में भी यहां कोई नहीं दिखायी देता, सिवाय किराड़ू मंदिर समूहों के मुख्य द्वार पर बैठे कुछ चौकीदारों के। ये सब देखकर एक बात समझ आती है, बाड़मेर से दूर वीराने में होने के चलते यहां कम ही लोग आ पाते होंगे। आस-पास ना रिहाइश है, ना कोई दुकान इत्यादि। ऐसे में सूर्यास्त बाद कोई यहां रुकेगा तो क्यों रुकेगा। किराड़ू के मुख्य द्वार से मंदिर के अंदर बढ़ने पर कुछ भग्नावशेष मिलते हैं, जो मन में खुद-ब-खुद कई सवालों को जन्म देने लगते हैं।
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खामोशी, वीरानगी, खंडित मूर्तियां, अजीबोगरीब कहानियां, सबकुछ है यहां | कोई इसे डर का दूसरा जहां कहता है, कोई सूर्यास्त के बाद जाने से यहां मना कर देता है | आखिर कौन रहता है यहां? कोई दिव्य आत्मा, कोई शैतानी शक्ति या अफवाहों की कारगुज़ारियां? क्या है रेगिस्तान के बीचोंबीच वीरान पड़े इन मंदिरों और इन बिखरे पत्थरों का सच? आपके अंदर सवालों का ज्वार-भाटा फूटे उससे पहले प्रथम सवाल का उत्तर जान लें। इस वीरान स्थान का नाम है किराड़ू |
राजस्थान से बाहर के लोगों ने ये नाम शायद पहली बार सुना हो। राजस्थान के ज्यादातर लोगों ने कभी न कभी इस नाम को ज़रूर सुना होगा। इस रहस्यमयी दुनिया के ज़र्रे-ज़र्रे की सच्ची और सटीक जानकारी देने के लिए Being Ghumakkad की टीम निकल पड़ी सीधे बाड़मेर की ओर। विषय उत्सुकता पैदा करने वाला, किस्से-कहानियों की पोटली में छिपे दस्तावेज़ों की तरह था, इसलिए Being Ghumakkad ने किराड़ू पर गहन रिसर्च करने वाले ओम जोशी जी को अपने साथ ले लिया, जो हमें मिले राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय, बाड़मेर के बाहर।
ओम जोशी से मिलने के बाद पता चला बाड़मेर से किराड़ू करीब 40-45 किलोमीटर दूर है। जहां पहुंचने का कुछ रास्ता टूटा-फूटा और उबड़-खाबड़ है। मतलब ये कि बाड़मेर से किराड़ू पहुंचने में कम से कम डेढ़ घंटे लगने वाले थे। मंज़िल दूर थी, लेकिन रेगिस्तान की राहों में कुछ नया देखने की आस लिए Being Ghumakkad की गाड़ियों के चक्के आगे बढ़ते रहे। हाथमा गांव से किराड़ू की दूरी करीब 2 किलोमीटर है।
खास बात ये है कि यहां अंदर अजीब सा सन्नाटा पसरा रहता है। दिन के उजाले में, तपती दोपहरी में भी यहां कोई नहीं दिखायी देता, सिवाय किराड़ू मंदिर समूहों के मुख्य द्वार पर बैठे कुछ चौकीदारों के। ये सब देखकर एक बात समझ आती है, बाड़मेर से दूर वीराने में होने के चलते यहां कम ही लोग आ पाते होंगे। आस-पास ना रिहाइश है, ना कोई दुकान इत्यादि। ऐसे में सूर्यास्त बाद कोई यहां रुकेगा तो क्यों रुकेगा। किराड़ू के मुख्य द्वार से मंदिर के अंदर बढ़ने पर कुछ भग्नावशेष मिलते हैं, जो मन में खुद-ब-खुद कई सवालों को जन्म देने लगते हैं।
किराड़ू के मंदिर समूहों को करीब से देखने के लिए आगे बढ़ें उससे पहले इस स्थान का इतिहास समझ लेते हैं। ऐतिहासिक दस्तावेज़ों के मुताबिक किराड़ू में आज 5 मंदिर हैं। इनमें से चार शिव को और एक विष्णु को समर्पित माना जाता है। ये मंदिर 11वीं, 12वीं शताब्दी में बनाए गए, जबकि विष्णु मंदिर उससे भी पहले बनने का पता चलता है। इतिहासकार जॉर्ज मिशेल ने अपनी किताब ‘’द पेंगुइन गाइड टू द मॉन्यूमेंट्स ऑफ इंडिया’’ के वॉल्यूम-1 में लिखा है किराड़ू का विष्णु मंदिर 10वीं शताब्दी में बना। यहां सबसे मुख्य सोमेश्वर मंदिर है। ऐसा कहा जाता है इस मंदिर का निर्माण परमार राजा सोमेश्वर ने 12वीं शताब्दी में करवाया। कुछ इतिहासकारों का दावा है यहां किरार राजपूत शासन किया करते थे, जिन्होंने छठी से 8वीं शताब्दी के बीच शिव मंदिरों का निर्माण करवाया। वहीं कुछ इतिहासकार मानते हैं किराड़ू का इतिहास गुर्जर-प्रतिहार वंश के शासन के साथ शुरू होता है। किराड़ू के इसी इतिहास को जानने और इसके निर्माण की बारीकियों को समझने के लिए अब सोमेश्वर मंदिर के अंदर चलते हैं।
बात इतिहास की हो रही है, तो कुछ बातें और जान लीजिए, उसके बाद अंदर की नक्काशी को कुछ और करीब से समझा जाएगा। हां, ये सच है सदियों पहले ये जगह किराट-कूपा के नाम से विख्यात थी। जो एक समृद्ध और वैभवशाली नगर के रूप में माना जाता था। किराट-कूपा के चर्चे सिंध से लेकर कांधार और मध्य-पूर्व तक थे। रेगिस्तान होने की वजह से किराड़ू में कुछ खास खेती नहीं होती थी, यहां थारपारकर नस्ल की गाय बहुतायत में थी, जिसके अमृतमयी घी का व्यापार दूर-दूर तक फैला था, उसी घी की बदौलत किराड़ू में धन-धान्य और वैभव आया। ऐसा माना जाता है इसी वैभव के चलते किराड़ू विदेशी आक्रांताओं की नज़र में भी चढ़ गया। उनमें से एक था मोहम्मद गौरी। जिसने किराड़ू की वैभवता को नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। एक-एक मूर्ति को खंडित कर दिया गया। संस्कृतिकर्मी ओम जोशी के मुताबिक इस स्थान पर 14वीं शताब्दी में महमूद बेगड़ा की कुदृष्टि भी पड़ी।
इतिहास के क्रूर काल से इतर किराड़ू की स्थापत्य कला की बात करें तो यहां मारू-गुर्जर शैली नज़र आती है। मारू-गुर्जर शैली राजस्थान और गुजरात की कारीगरी के मिश्रण को दिखाती है। भव्य भीतरी हिस्से और मुख्य शिखर के करीब के सहायक स्तंभ इस शैली की विशेषता हैं। इतिहासकार एम.ए.ढ़ाकी ने 1967 में किराड़ू के इसी इतिहास और architecture पर एक लेख लिखा ‘’किराड़ू एंड मारू-मुर्जरा स्टाइल ऑफ टेंपल आर्किटेक्चर’’। हालांकि ओम जोशी के मुताबिक सोमेश्वर मंदिर में उन्हें नागर शैली की झलक भी दिखायी देती है, इसके पीछे वो मंदिर के अंदर मौज़ूद नृत्य मंडप का उदाहरण देते हैं। मंदिर के अंदर जितने सुंदर वास्तु शिल्प को दिखाया गया है। बाहर भी उतना ही अर्थपूर्ण चित्रण किया है। इस चित्रण में धर्म और आध्यात्म दोनों का समावेश नज़र आता है |
सोमेश्वर मंदिर का द्वार भी बहुत खास है। इसके शीर्ष पर धर्म चक्र बनाया गया है। ये चित्रण सांची के स्तूपों की तरह प्रतीत होता है। मंदिर के निर्माण, साक्ष्य और विध्वंश की बातें हो गयी अब बात उस कहानी की, जो किराड़ू के इतिहास को कुछ डरावना बनाती हैं। ऐसी मान्यता है कि किराड़ू के मंदिर समूहों में सूर्यास्त के बाद कोई भी इंसान रुक नहीं सकता। जो यहां रात में रुकता है वो पत्थर में बदल जाता है। इसके पीछे एक अभिशाप की अलग-अलग कथाएं सुनायी जाती हैं। कहा जाता है राजा सोमेश्वर के शासनकाल में एक साधु धुंधलीनाथ यहां रहते थे। किंवदंतियों के मुताबिक साधु धुंधलीनाथ ने किराड़ू को श्राप दिया था।
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भूत-प्रेत की बातों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। दूरस्थ इलाका, समय-समय पर आक्रमणकारियों की बर्बरता, आज़ादी के बाद सरकारी स्तर पर उदासीनता की वजह से किराड़ू का उत्थान नहीं हो पाया और अफवाहों का शिकार बनता चला गया। कुछ साल पहले यहां थार महोत्सव का आयोजन हुआ था। किराड़ू के इतिहास को ज्यादा जानने के लिए ASI ने परिसर के अंदर खुदाई भी की, जहां ज़मीन के अंदर मोटी पत्थर की दीवारें निकली। लेकिन वो काम बीच में ही छोड़ दिया गया। किराड़ू आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया और इंटेक की देखरेख में है। वही इसके उत्थान में लगे हैं। लेकिन ये काम इतना धीमा है कि कछुए की चाल भी तेज़ हो जाए। अगर आप भारत के गौरवशाली इतिहास से रूबरू होना चाहते हैं तो किराड़ू आपके लिए सबसे बेहतरीन स्थान है। किराड़ू पहुंचने के लिए सबसे निकट का हवाई अड्डा जोधपुर में है। जो यहां से करीब 250 किलोमीटर दूर है। ट्रेन से भी आप किराड़ू पहुंच सकते हैं। बाड़मेर रेलवे स्टेशन यहां से करीब 40 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।
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