क्या थी "मेन मेड आपदा"? जिसने 96 घंटे में ले ली थी 4000 लोगों की जान
साल 1952, लंदन, ठंडी हवाओं और सर्द मौसम के बीच, दिसंबर का महीना लंदन के इतिहास का सबसे खतरनाक और दर्दनाक अध्याय लेकर आया। यह वह समय था जब सांस लेना भी लोगों के लिए जानलेवा साबित हो रहा था। चार दिनों तक घने स्मॉग ने पूरे शहर को ढक लिया। इस त्रासदी में लगभग 4000 लोगों की मौत हुई और लाखों लोगों की ज़िंदगी कभी वैसी नहीं रही।
5 दिसंबर साल 1952 में लंदन ने एक ऐसी त्रासदी देखी, जिसने इतिहास के पन्नों में अपनी जगह बना ली। चार दिनों तक शहर घने स्मॉग (धुंध और धुएं का मिश्रण) की चादर में लिपटा रहा। ये कोई प्राकृतिक आपदा नहीं थी, बल्कि इंसानों के हाथों निर्मित एक तबाही थी। इस त्रासदी ने न केवल हजारों जानें लीं, बल्कि पर्यावरण और स्वास्थ्य के प्रति गंभीर सवाल भी खड़े कर दिए। क्या थी आखिर यह घटना, कैसे 96 घंटे में इसवे लंदन के लोगों को निगलने का काम किया। विस्तार से समझते हैं।
क्या था ग्रेट स्मॉग ऑफ लंदन?
5 दिसंबर के दिन लंदन की सुबह ठंडी और धुंधली थी। सर्दी से बचने के लिए लोगों ने घरों और फैक्ट्रियों में कोयले का इस्तेमाल बढ़ा दिया था। यह कोयला जलने के दौरान भारी मात्रा में धुआं और हानिकारक गैसें छोड़ता था। दिन जैसे-जैसे बढ़ा, ठंडी हवा के साथ यह धुआं ऊपर उठने के बजाय जमीन के करीब जमने लगा। लंदन की सड़कों पर धुंध इतनी घनी हो गई कि कुछ मीटर की दूरी पर खड़ा व्यक्ति भी दिखाई नहीं दे रहा था। यह स्थिति रात होते-होते और भयावह हो गई। लोग घरों में बंद हो गए, लेकिन घरों के अंदर भी हवा सांस लेने लायक नहीं बची थी।
आपको बता दें कि लंदन उस समय औद्योगिक क्रांति के चरम पर था। फैक्ट्रियों की चिमनियां दिन-रात कोयले का धुआं उगल रही थीं। सर्दियों में तापमान गिरने के कारण लोग अपने घर गर्म रखने के लिए कोयले का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल कर रहे थे। अब कोयला उनके घरों को गर्म रखने का काम तो कर रहा था, लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि कोयले के जलने से सल्फर डाइऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड और कार्बन डाइऑक्साइड जैसी जहरीली गैसें हवा में भर गईं। ठंड और स्थिर मौसम ने इस धुएं को लंदन के ऊपर जमे रहने दिया। जिसके बाद यह घातक मिश्रण एक जहरीली चादर बन गया जिसे "ग्रेट स्मॉग ऑफ लंदन" कहा गया।
96 घंटे की घातक त्रासदी
5 दिसंबर से 8 दिसंबर तक लंदन पूरी तरह से स्मॉग में डूबा रहा। इस दौरान लोगों को सांस लेने में तकलीफ होने लगी। आंखों में जलन और गले में खराश जैसी समस्याएं आम हो गईं। अस्पताल मरीजों से भर गए, लेकिन उस समय की सीमित चिकित्सा सुविधाएं इस संकट का सामना करने में नाकाफी थीं। लोगों की मौत का आंकड़ा तेजी से बढ़ने लगा। सबसे ज्यादा प्रभावित बुजुर्ग, छोटे बच्चे और पहले से बीमार लोग हुए। स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि जनजीवन पूरी तरह से ठप हो गया। हालांकि 9 दिसंबर को मौसम और हवा की दिशा बदलाव होने लगा, और स्मॉग धीरे-धीरे हटने लगा। लेकिन जब आसमान साफ हुआ, तब तक लंदन को एक भयानक कीमत चुकानी पड़ चुकी थी। इस त्रासदी में अनुमानित 4000 लोगों की मौत हुई, और लगभग 1,00,000 लोग कई अन्य बीमारियों से प्रभावित हुए।
ग्रेट स्मॉग ऑफ लंदन ने दुनिया को औद्योगिक प्रदूषण के खतरों के प्रति आगाह किया। इस घटना के बाद 1956 में "क्लीन एयर एक्ट" पारित किया गया, जिसने कोयले के जलने पर कड़े प्रतिबंध लगाए। साथ ही, लंदन के आसपास के इलाकों में फैक्ट्रियों की चिमनियों को ऊंचा बनाया गया ताकि धुआं दूर तक फैल सके।
लंदन स्मॉग की कहानी आज भी हमें याद दिलाती है कि औद्योगिक और मानवीय गतिविधियों के परिणाम कितने खतरनाक हो सकते हैं। ग्लोबल वॉर्मिंग और वायु प्रदूषण के बढ़ते स्तरों के बीच यह घटना एक चेतावनी की तरह है। आधुनिक समय में हम अधिक जागरूक हैं, लेकिन यह जागरूकता तब तक बेकार है जब तक इसे कार्यों में नहीं बदला जाए। लंदन स्मॉग ने जो विनाश किया, वह आज भी हमें सोचने पर मजबूर करता है कि अगर हम अपने पर्यावरण की सुरक्षा के लिए ठोस कदम नहीं उठाएंगे, तो ऐसी त्रासदियां बार-बार होंगी।
ग्रेट स्मॉग ऑफ लंदन केवल इतिहास की एक घटना नहीं है, बल्कि यह मानवता के लिए एक सबक है। यह घटना दिखाती है कि पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ का नतीजा कितना घातक हो सकता है। हमें यह समझना होगा कि स्वच्छ हवा केवल एक जरूरत नहीं, बल्कि हर इंसान का अधिकार है।