उर्दू : भाषा या मुस्लिम सांप्रदायिक टूल
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश विधान सभा मे सदन की कार्यवाही का उर्दू में अनुवाद करने की मांग करने के लिए समाजवादी पार्टी की आलोचना करते हुए कहा कि वे अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भेजते हैं लेकिन चाहते हैं कि दूसरों यानी मुसलमानो के बच्चे उर्दू सीखें। इसके बाद से ही उर्दू भाषा को लेकर चर्चा सरगर्म है।
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हाल ही मे मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उत्तर प्रदेश विधान सभा मे सदन की कार्यवाही का उर्दू में अनुवाद करने की मांग करने के लिए समाजवादी पार्टी की आलोचना करते हुए कहा कि वे अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में भेजते हैं लेकिन चाहते हैं कि दूसरों यानी मुसलमानो के बच्चे उर्दू सीखें। इसके बाद से ही उर्दू भाषा को लेकर चर्चा सरगर्म है। अशराफ और तथाकथित लिबरल सेक्युलर बुद्धिजीवियों द्वारा उर्दू को सम्पूर्ण मुसलमानो की भाषा और गंगा जमुना तहजीब के वाहक के रूप मे सदैव प्रस्तुत किया जाता रहा है। जो कि तथ्ययात्मक रूप से विसंगतियों से भरा पड़ा है।
यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि मुसलमानो की 85% आबादी देशज पस्मान्दा की है, जिसकी भाषा क्षेत्र विशेष की भाषाएं, अपभ्रंश भाषाएं एवं बोलियाँ रही हैं न की उर्दू।उर्दू मुख्यतः अशराफ मुस्लिमों की भाषा रही है। जिसे वो अपने राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए पूरे मुसलमानो की भाषा बना कर प्रस्तुत करता है।ये अशराफवाद का ही बुरा प्रभाव है कि पसमांदा की एक बड़ी आबादी उर्दू से अनभिज्ञ होने के बाद भी उर्दू को ही अपनी भाषा बताती है, यहाँ तक कि कर्नाटक के कन्नड़ भाषी पसमांदा मुसलमान भी उर्दू को ही अपनी भाषा बताते हैं, बंगाल,पंजाब तक का यही हाल है। केरला और तमिलनाडु में स्थिति जरूर कुछ भिन्न जरूर है।अशराफ वर्ग ने अपने पाकिस्तान आंदोलन के दौरान भी उर्दू को एक टूल के रूप यूज़ किया था । उर्दू पाकिस्तान की सरकारी ज़ुबान होने के बावजूद भी केवल 7% लोगो ही उर्दू बोलने वाले हैं और किसी भी क्षेत्र विशेष की भाषा नही है। अशराफिस्तान (पाकिस्तान) के विभाजन के मुख्य कारणों मे से एक कारण उर्दू भाषा का बलात कार्यान्वयन भी था।
अशराफ वर्ग ने उर्दू को लेकर कैसे पसमांदा के मन-मस्तिष्क को दूषित किया इस उदाहरण से समझा जा सकता है - "एक बुजुर्ग ने सपने में अल्लाह ता'अला को उर्दू बोलते हुए देखा, उन्होंने पूछा," या अल्लाह आपने उर्दू कैसे सीखी? आप तो सुरयानी, इब्रानी और अरबी बोलते हैं। अल्लाह ने कहा, "मैंने यह भाषा शाह रफीउद्दीन, शाह अब्दुल क़ादिर, थानवी, देवबन्दी, मिर्ज़ा हैरत, डिप्टी नज़ीर से बात-चीत के दौरान सीखी।" उर्दू के अशराफ़वाद और जातिवादी चरित्र को कुछ प्रसिद्ध साहित्यकारों और उनकी रचनाओ से समझने का प्रयास किया गया है ।
मीर तक़ी मीर
“नुक़्त-ए-पर्दाज़ी से इज़लफों को क्या
शेर से बज्जाजो, नद् दाफों को क्या”
मीर तक़ी मीर कहते हैं कि साहित्य की आलोचना करना सिर्फ अशराफ लोगों का काम है। उसे नीच और असभ्य लोग क्या जानें, शेर को समझना बजाज और धुनिओ के बस का नहीं है।
अकबर इलाहाबादी
"पानी पीना पड़ा है पाइप का
हर्फ़ पढ़ना पड़ा है टाइप का
पेट चलता है आँख आई है
शाह एडवर्ड की दुहाई है''
ज़मींदारों के यहाँ पानी भरने वाले हुआ करते थे जो पानी कुआँ से लाते थे। और उन्हें पानी की बहुतायत थी लेकिन सब के साथ ऐसा नहीं था। कुआँ भी मुख्य रूप से पसमांदा (पिछड़े, दलित और आदिवासी) चाहे वो किसी धर्म के मानने वाले रहे हों, के पहुँच से बाहर हुआ करता था कुछ के लिए तो बिलकुल वर्जित था। और पसमांदा को पानी उनकी आवश्यकता से बहुत कम प्राप्त था उस पर ताना ये कि "बहुत गंदे रहते हैं" लेकिन जब अंग्रेज़ों ने पानी को आम लोगों के लिए पाइप के ज़रिये पहुँचाने की व्यवस्था की तो पसमांदा को थोड़ी बहुत सहूलत हो गयी जिसका विरोध अकबर इलाहाबादी ने अपने चिर परिचित व्यंगात्मक अंदाज़ में यूँ बयान किया। कुछ यही किस्सा छापे खाने और टाइप मशीन का भी था।
“अब ना हिल मिल है ना वो पनिया का माहोल है
एक ननदिया थी सो वो भी अब दाखिले स्कूल है"
उस दौर में पसमांदा की महिलाये खुद के लिए भी और स्वयंघोषित विदेशी अशराफ के घरों के लिए भी कुआँ और तालाबों से पानी भर के लाया करती थीं। पनघट के रास्ते में ये लोग (सैयद शैख़ मुग़ल तुर्क पठान आदि) पानी भरने जाने वाली पसमांदा महिलाओ का हिलमिल देख के प्रसन्नचित हुआ करते थे। स्पष्ट है कि अशराफ के ज़िम्मे कोई काम तो था नहीं, सारा मेहनत और कठिनाई का काम तो रैय्यतों (सेवको/पसमांदा) के ऊपर थोपा हुआ था। बहरहाल जब सामाजिक बदलाव हुए और पसमांदा में भी शिक्षा और धन आने लगा और उन्होंने अपनी महिलावों को भी शिक्षा के लिए स्कूल भेजने लगे तो पनघट सूना हो गया है।
"बेपर्दा नज़र आयीं जो कल चन्द बीबियां
अकबर ज़मीं में ग़ैरत-ए-क़ौमी से गड़ गया
पूछा जो आप का पर्दा वह क्या हुआ
कहने लगीं के अक़्ल के मर्दों पे पड़ गया"
जब सामाजिक सुधारों के फलस्वरूप अशराफ की बीबियाँ घरो से बाहर निकल के शिक्षा हासिल करने लगीं तब इस बात से अकबर इलाहाबादी को बहुत कष्ट हुआ और वो अपनी क़ौम को शर्म दिलाते हुए इसका विरोध अपने व्यंगात्मक अंदाज़ में कुछ यूँ किया।अब आप के दिल में ये ख्याल आ रहा होगा कि अकबर इलाहाबादी को सारे मुस्लिमों की औरतों को बे-पर्दा होने का मलाल था। तो आप ये जान लें कि उस वक़्त पसमांदा महिलाये तो पहले से ही बेपर्दा थीं और अपने रोज़ी रोटी के लिए अशराफ के घरों, गली मोहल्लों और बाज़ारों में आया जाया करती थीं। श्रीमान को तो सिर्फ बीबियों के बेपर्दा होने की फ़िक़्र थी।
"यूँ क़त्ल पे, लड़कों के, वो बदनाम ना होता
अफ़सोस कि फ़िरऔन को कॉलेज की ना सूझी"
अकबर इलाहाबादी कहते हैं कि अगर फ़िरऔन को स्कूल और कॉलेज के बारे में पहले पता चल गया होता तो वो बच्चों को क़त्ल करने के बजाय उन्हें कॉलेज में भेज देता, फलस्वरूप वो इस तरह बर्बाद हो जाते जो उनकी मौत ही तरह होता और इस तरह वो बच्चों के क़त्ल की बदनामी से भी बच जाता।
यहाँ यें बात ध्यान देने योग्य है कि अकबर इलाहाबादी अपने इस मज़ाकिया शेर के ज़रिये से मॉडर्न एजुकेशन का विरोध कर रहे हैं।
नोट:- वो अलग बात है कि अकबर इलाहाबादी खुद भी मॉडर्न एजुकेटेड थे (जज हो के रिटायर्ड हुए थे) और अपने बच्चों को कॉलेज क्या लन्दन तक पढ़ने भेजा था। असल बात ये था कि शिक्षा पसमांदा तक ना पहुंचे।
''बुद्धू मियां भी हजरते गांधी के साथ हैं
गो मुश्त-ए-खाक* मगर आंधी के साथ हैं''
अर्थात:- ये मूर्ख आदमी भी देखो गांधी जी के साथ है जबकि इसकी हैसियत एक मुट्ठी मिट्टी से अधिक नहीं और गांधी जैसे व्यक्तित्व के हां में हां मिला रहा है
अल्लामा इकबाल
''उठा के फेक दो बाहर गली में
नई तहज़ीब के अण्डे हैं गन्दे
इलेक्शन मेम्बरी कौंसिल सदारत
बनाये हैं खूब आज़ादी ने फन्दे''
1857 के क्रांति के बाद भारत सीधे तौर से ब्रिटेन सरकार के अधीन हो गया और ब्रिटिश सरकार ने भारत देश में सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक और राजनैतिक सुधार शुरू कर दिया, जिसके फलस्वरूप पसमांदा लोगों के पास शिक्षा और धन पहुँचने लगा। ये नई स्थिति तथाकथित अशराफ मुस्लिमों को स्वीकार नहीं थी। दूसरी बात यह भी थी की लोकतंत्र से अशराफ के सामंतवाद को सीधा खतरा था इसलिए उसका विरोध करना जरूरी था।
इस नयी व्यवस्था के जितने भी सुधार वादी कार्यक्रम (अंडे) हैं वो सब गन्दे हैं उन्हें उठा कर बाहर गली में फेंक दो यानि अपने से दूर कर दो। और लोकतंत्र के जितने भी आयाम हैं सब फांसी के फंदे की तरह हैं जो आजादी के नाम पर बनाया जा रहा है। एक और जगह लोकतंत्र का मजाक उड़ाते हुए लिखते हैं--
जम्हूरियत इक तर्ज़-ए-हुकूमत है कि जिसमें
बंदों को गिना करते हैं तौला नहीं करते
स्पष्ट है कि जब गिनती होगी तो पसमांदा और अशराफ दोनों का वोट एक ही गिना जाएगा, जबकि अशराफ का तौल (वजन, सामाजिक असर रसूख) तो पसमांदा से कहीं अधिक है, इसलिए ये गिनती वाला सिस्टम खराब है।
नोट:- हालांकि इक़बाल ने खुद उच्च मॉडर्न एजुकेशन हासिल किया और अपने बेटो को भी कॉलेज की तालीम दिलाई। उनका एक बेटा जावेद इक़बाल पकिस्तान में जस्टिस भी रह चुका है।
''यूँ तो सैयद भी हो मिर्ज़ा भी हो अफ़ग़ान भी हो
तुम सभी कुछ हो, बताओ मुसलमान भी हो''
यहाँ इक़बाल ने भी सिर्फ अशराफ की जातियों का ही ज़िक्र किया है, मालूम होता है कि उनके नज़दीक भी पसमांदा मुस्लिम नहीं लगते वर्ना क्या दिक्कत थी कि एक दो पसमांदा जातियों का भी वर्णन करते। वो अलग बात है कि इस्लाम में "कुफु" के नाम पर सारा ऊँच नीच शामिल किया गया है। इस्लाम फिक़्ह (विधि) में नसब व नस्ल (जातिगत) के बड़प्पन को आधार मान कर शादी बियाह करने का हुक्म दिया गया है। इस्लामी फिक़्ह (विधि) में वर्णित अध्याय "निकाह" का पाठ "कुफु" मे यह स्पष्ट किया गया है ।
वसीम बरेलवी
''ज़रा सा क़तरा कहीं आज जो उभरता है
समन्दरों के ही लहजे में बात करता है''
सामाजिक न्याय के संघर्ष के फलस्वरूप जब कुछ तथाकथित निचले तबके के लोग शासन प्रशासन में भागीदार हुए और नए नए निर्णय लेने लगे तो पहले से मुख्यधारा में मौजूद लोगों को भारी पड़ने लगा, ऐसा प्रतीत होता है कि यह शे'र उस ओर इशारा कर रहा है, वैसे भी शायरी को इशारे की जुबान कहते हैं।
1932 में लखनऊ से प्रकाशित होने वाली किताब "अंगारे" में चार ऐसे लोगों की कहानी थी जो अब तक उर्दू साहित्य में करैक्टर नहीं बन पाये थे यानि हाशिये पर पड़े पसमांदा लोग।इस किताब का अशराफ वर्ग ने बहुत विरोध किया। फलस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने इस किताब पर पाबन्दी लगवा दी। 1936 में प्रोग्रेसिव राइटर यूनियन बनने के बाद उर्दू अदब के एक बहुत बड़े हिस्से ने उस वक़्त हो रहे सामाजिक बदलाव का साथ दिया। लेकिन फिर भी अशराफ ने हमेशा ये प्रयास किया की उर्दू को इस्लाम और मुसलमान से जोड़कर इसका धर्मनिरपेक्ष चरित्र खत्म करके अपना स्वार्थ सिद्ध करते रहें। इस प्रकार अपने इसी सोच के तहत पंजाबी और भक्ति के बहुत से साहित्य को उर्दू का हिस्सा नहीं बनने दिया हालांकि उनमें से बहुत सी रचनाओं की मूल प्रति नस्तालिक़ (उर्दू की लिपि जिसमे फ़ारसी भी लिखी जाती है) में लिखी गयी थी।ऊपर लिखित विवरण से स्पष्ट है कि अशराफ समाज ने उर्दू पर मुस्लिम सांप्रदायिकता का रंग चढ़ा कर उसे अपने सत्ता वर्चस्व को बनाए बचाने रखने के लिए केवल एक टूल के रूप में ही प्रयोग किया है।
लेखक:- डॉ फैयाज अहमद फैजी, लेखक अनुवादक स्तंभकार मीडिया पैनलिस्ट पसमांदा सामाजिक कार्यकर्ता एवं आयुष चिकित्सक
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