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शहीद दिवस 2025: क्यों हर भारतीय को याद रखना चाहिए भगत सिंह की कुर्बानी

23 मार्च को भारत शहीद दिवस के रूप में मनाता है, जब भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को ब्रिटिश सरकार ने फांसी दी थी। उनकी क्रांति, देशभक्ति और बलिदान की कहानी हर भारतीय के दिल में जोश भर देती है।

 भारत के इतिहास में 23 मार्च का दिन कभी भुलाया नहीं जा सकता। यह वही दिन है जब भारत माता के तीन वीर सपूत – भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव  ने हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूमा था। आज भी उनकी कुर्बानी हर भारतीय के दिल में देशभक्ति की भावना जगा देती है। इस दिन को ‘शहीद दिवस’ के रूप में मनाया जाता है और हर साल पूरा देश इन वीरों को श्रद्धांजलि देता है।

क्रांति की चिंगारी

भगत सिंह का जन्म 28 सितंबर 1907 को पंजाब के लायलपुर (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। उनका परिवार भी स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय था, इसलिए बचपन से ही उनके मन में क्रांति की भावना घर कर गई थी। 1919 में जलियांवाला बाग हत्याकांड ने उनके मन को झकझोर दिया। महज 12 साल की उम्र में उन्होंने इस नरसंहार को अपनी आंखों से देखा और अंग्रेजों से बदला लेने की ठानी।

कुछ साल बाद जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया, तो भगत सिंह निराश हो गए और अहिंसा से अलग क्रांतिकारी मार्ग अपनाने का फैसला किया। उन्होंने चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु, सुखदेव और बटुकेश्वर दत्त के साथ मिलकर ‘हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ (HSRA) की स्थापना की।

लाला लाजपत राय की मौत

1928 में अंग्रेजों ने साइमन कमीशन को भारत भेजा, लेकिन इसमें कोई भी भारतीय सदस्य नहीं था। पूरे देश में इसका विरोध हुआ। 30 अक्टूबर 1928 को लाला लाजपत राय के नेतृत्व में लाहौर में एक विशाल प्रदर्शन हुआ, जिसमें पुलिस ने लाठीचार्ज कर दिया। ब्रिटिश अफसर जेम्स ए स्कॉट ने बेरहमी से लाला लाजपत राय पर प्रहार किए, जिससे कुछ ही दिनों बाद उनकी मौत हो गई। भगत सिंह और उनके साथियों ने इस हत्या का बदला लेने की कसम खाई। उन्होंने योजना बनाई कि वे स्कॉट को मारेंगे, लेकिन गलती से पुलिस अफसर सांडर्स को गोली मार दी। इसके बाद भगत सिंह अंडरग्राउंड हो गए।

असेंबली में बम धमाका

8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली की सेंट्रल असेंबली में बम फेंका। यह बम किसी को नुकसान पहुंचाने के लिए नहीं था, बल्कि ब्रिटिश हुकूमत को जगाने के लिए था। जैसे ही बम फटा, पूरा हॉल गूंज उठा। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने "इंकलाब जिंदाबाद!" के नारे लगाए और खुद को गिरफ्तार करा लिया।

जिसके बाद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव पर हत्या और राजद्रोह का मुकदमा चला। कोर्ट में उन्होंने अंग्रेजों की नीतियों की कड़ी आलोचना की और कहा कि वे आज़ादी के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं। जेल में रहते हुए भगत सिंह ने कई किताबें पढ़ीं और ‘मैं नास्तिक क्यों हूं’ जैसी ऐतिहासिक लेखनी भी लिखी। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें फांसी की सजा सुना दी। यह सुनकर पूरा देश रो पड़ा, लेकिन भगत सिंह मुस्कुराए और कहा, "मेरी मौत से क्रांति की आग और भड़केगी।"

फांसी से पहले का आखिरी दिन

22 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को उनके सेल में ले जाया गया। उनके चेहरे पर डर का नामोनिशान तक नहीं था। जेलर ने पूछा, "तुम्हारी कोई आखिरी इच्छा?" भगत सिंह बोले, "हां, मुझे 'इंकलाब जिंदाबाद' का नारा लगाने दीजिए!" 23 मार्च 1931 की शाम, तय समय से पहले ही तीनों को फांसी पर चढ़ा दिया गया। फांसी के दौरान भी उनके चेहरे पर मुस्कान थी।

भगत सिंह के बलिदान ने न केवल भारतीय इतिहास में बल्कि बॉलीवुड की फिल्मों में भी एक अमिट छाप छोड़ी है। कई फिल्मों ने उनकी कहानी को जीवंत किया। 
शहीद-ए-आजाद भगत सिंह (1954)
शहीद भगत सिंह (1963)
शहीद (1965) – मनोज कुमार की यह फिल्म बेहद लोकप्रिय हुई।
द लीजेंड ऑफ भगत सिंह (2002) – अजय देवगन के दमदार अभिनय से सजी यह फिल्म आज भी लोगों को प्रेरित करती है।
23 मार्च 1931: शहीद (2002) – बॉबी देओल और सनी देओल की इस फिल्म ने भी देशभक्ति की भावना जगाई।

हर साल 23 मार्च को देशभर में शहीद दिवस मनाया जाता है। स्कूलों, कॉलेजों और सरकारी दफ्तरों में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को श्रद्धांजलि दी जाती है। उनका बलिदान हमें यह सिखाता है कि "देश के लिए जीना और मरना ही सच्ची देशभक्ति है।" आज भी जब कोई कहता है "इंकलाब जिंदाबाद", तो भगत सिंह की आवाज़ हमारे दिलों में गूंज उठती है।

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