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'संघे शक्तिः कलौयुगे...', इतिहास रच गई स्वामी दीपांकर की 'भिक्षा यात्रा', तीन साल में करोड़ों हिंदुओं ने लिया एकजुटता का संकल्प

जातियों में विभाजित हिंदू समाज को एकजुट करने के उद्देश्य से स्वामी दीपांकर महाराज द्वारा निकाली गई भिक्षा यात्रा अपने तीसरे वर्ष में प्रवेश कर रही है. भारत की सबसे लंबी अवधि की यात्रा और सबसे लंबा-बड़ा अभियान करीब 18 हजार से ज़्यादा किलोमीटर चल चुकी है. इसमें अब तक 6 राज्यों को कवर किया गया है, जिनमें पहला राज्य उत्तर प्रदेश, दूसरा उत्तराखंड, तीसरा दिल्ली, चौथा हरियाणा, पांचवां तेलंगाना और छठा हैदराबाद है. इस दौरान 1 करोड़ 7 लाख लोगों ने संकल्प लिया है कि वे जाति और समाज के नाम पर बटेंगे नहीं और एक रहेंगे. यह अपने आप में इसलिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण और अनोखी यात्रा है, जहां दक्षिणा में पैसा-दान, अनाज नहीं बल्कि एकजुटता का संकल्प लिया जाता है.

Created By: केशव झा
22 Nov, 2025
( Updated: 05 Dec, 2025
01:12 PM )
'संघे शक्तिः कलौयुगे...', इतिहास रच गई स्वामी दीपांकर की 'भिक्षा यात्रा', तीन साल में करोड़ों हिंदुओं ने लिया एकजुटता का संकल्प

भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक उत्थान के लिए जनजागरण और पदयात्राओं का इतिहास रहा है. हर यात्रा के अपने महत्व होते हैं, लेकिन जातियों में बंटे हिंदू समाज को एकजुट करने के उद्देश्य से अनंतकाल के लिए निकाली गई स्वामी दीपांकर की भिक्षा यात्रा अपने आप में अहम है. भारतवासी जब अखंड भारत का ख्वाब देखते हैं, फिर से पुराना गौरव हासिल करना चाहते हैं और खुद को विश्वगुरु के तौर पर स्थापित करना चाहते हैं, और अंदर से पंथ-जाति और संप्रदाय में बंटे हों, तो ये सपने दूर की कसौटी लगते हैं. ऐसे में स्वामी दीपांकर की सक्रियता और सोच का अपना महत्व है.

पिछले तीन वर्षों से अनवरत जारी स्वामी दीपांकर महाराज की भिक्षा यात्रा का मकसद कोई पैसा-रुपया या अन्न-धन की भिक्षा नहीं बल्कि हिंदू समाज से एक संकल्प लेना है कि वे जातियों में बंटेंगे नहीं बल्कि एकजुट रहेंगे.

आपको बताएं कि स्वामी दीपांकर महाराज की भिक्षा यात्रा, जो 23 नवंबर 2022 को उत्तर प्रदेश के देवबंद से शुरू हुई थी, अब अपने तीन वर्ष पूरे करने के करीब है. इन तीन वर्षों में स्वामी जी ने अपनी यात्रा के माध्यम से अपनी सोच को एक जनांदोलन का रूप दे दिया है. वैसे तो यात्रा की शुरुआत में चंद लोगों के साथ हुई थी, लेकिन तीन वर्षों के अंतराल में लोग जुड़ते गए और यह कारवां बढ़ता गया. आज करोड़ों लोग संकल्प ले चुके हैं.

किन राज्यों में गई भिक्षा यात्रा?

भिक्षा यात्रा के मूल में यही सोच है कि समाज को जातिगत विभाजन से मुक्त कराकर सशक्त सनातन के लिए एकजुट करना है. यात्रा का सबसे प्रमुख संदेश यही है कि लोग अपनी पहचान को मिटने न दें, इसे विभाजित न होने दें बल्कि एक साझा सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आधार पर खड़े हों. यह विचार यात्रा के साथ धीरे-धीरे गाँवों से शहरों तक फैलता गया. यात्रा ने अब तक बीस हजार किलोमीटर की दूरी तय की है, जिसमें उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, दिल्ली, हरियाणा, तेलंगाना, बिहार और मध्य प्रदेश जैसे राज्य शामिल हैं. हर राज्य में यात्रा का स्वागत उसी उत्साह के साथ हुआ, मानो लोग किसी ऐसी पुकार का प्रत्युत्तर दे रहे हों जो लंबे समय से उनके भीतर दबा हुआ था. यात्रा के मार्ग में उमड़ती भीड़ केवल देखने नहीं आती थी, बल्कि संकल्प लेने आती थी, और यही संकल्प इस यात्रा की आत्मा बन गया. अब तक एक करोड़ से अधिक लोग जातिगत भेदभाव से ऊपर उठकर एकजुट रहने का निर्णय ले चुके हैं.

यात्रा के दौरान अनेक सामाजिक प्रश्न और चिंताएं भी सामने आईं, जिन्हें जनता ने स्वामी जी के सामने खुलकर व्यक्त किया. कई स्थानों पर लोगों ने इस बात को स्वीकार किया कि जाति आधारित विभाजन न केवल सामाजिक ताने-बाने को कमजोर करता है, बल्कि भविष्य के प्रति असुरक्षा की भावना भी उत्पन्न करता है. देश के अनेक हिस्सों में बदलते सामाजिक समीकरण, जनसंख्या असंतुलन, वक्फ संपत्तियों से जुड़े विवाद और धार्मिक तनाव समाज के भीतर मौजूद चिंताओं को स्पष्ट करते हैं. भिक्षा यात्रा के दौरान यह संदेश बार-बार सामने आया कि समाज अगर स्वयं के भीतर ही बंटा रहेगा, तो वह किसी बाहरी चुनौती का सामना नहीं कर पाएगा. यात्रा के दौरान इन मुद्दों को उग्रता की बजाय सरल और निरंतर संवाद के माध्यम से लोगों के सामने रखा गया, जिस पर लोग स्वामी जी के विचारों के प्रति जागरूक हुए.

भिक्षा यात्रा के तीन साल पूरे!

भिक्षा यात्रा का स्वरूप केवल सामाजिक संदेशों तक सीमित नहीं रहा. अनेक स्थानों पर इसका रूप उत्सव जैसा हो जाता था, जहां स्थानीय लोग बड़ी संख्या में यात्रा से जुड़ते, स्वागत करते और स्वामी जी की सभाओं में शामिल होते. इन सभाओं में अक्सर देखा गया कि लोग यात्रा से मिले विचारों को अपने परिवार और समाज के लोगों तक ले जाने की बात करते थे. कई ऐसे प्रमाण मिले हैं जहां युवाओं ने अपने भीतर एक नई ऊर्जा महसूस की, बुजुर्गों ने अपने अनुभव साझा किए और महिलाओं ने इस यात्रा को अपनी सांस्कृतिक सुरक्षा से जोड़कर देखा. समाज में फैले विभिन्न वर्गों के बीच संवाद और संपर्क बनाने में यात्रा ने जो भूमिका निभाई है, वह इसे अन्य पदयात्राओं से अलग करती है.

ऐसे में जब यह यात्रा तीन वर्ष पूरे करने जा रही है, तब इसको लेकर भविष्य के लिए भी बड़ी योजनाएं सामने आ रही हैं. स्वामी दीपांकर महाराज ने अगले वर्ष 2026 में भिक्षा यात्रा को और विस्तृत तथा अधिक संगठित रूप से निकालने का संकल्प व्यक्त किया है. इसका नया चरण उत्तर प्रदेश से ही शुरू होगा, जहां से यात्रा की पहली बार शुरुआत हुई थी.

क्या है स्वामी दीपांकर की भिक्षा यात्रा का मकसद?

भिक्षा यात्रा के मूल में देखें तो इसका एक ही मकसद है, वह है हिंदू समाज को बंटने से रोकना. बकौल स्वामी दीपांकर जी महाराज 'बटेंगे तो कटेंगे' का एकमात्र अर्थ मात्र कटना ही नहीं होता, कटना होता है अपनी जड़ों से, अपनी संस्कृति से, अपनों से. जातियों में बंट गए तो अपनों से कट गए. शास्त्रों में कहा गया है कि 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः, परधर्मो भयावह', यानी कि अपने धर्म में तो मृत्यु भी सम्मान है, दूसरे का धर्म डराता है.

भिक्षा यात्रा जिस उद्देश्य से शुरू की गई थी, वह उसमें कामयाब होती दिख रही है. हिंदुओं और समाज के मन में अब यह संकल्प पैदा हो रहा है कि अब जातियों में नहीं बंटेंगे, एक साथ हिंदू होकर ही रहेंगे.

क्या है हिंदू राष्ट्र का असल मतलब?

जहां तक हिंदू राष्ट्र का सवाल है, बकौल स्वामी जी इसका मतलब बड़े-बड़े विश्लेषण नहीं है. इसका एक सरल-सा अर्थ है कि आप हिंदू बनिए, राष्ट्र अपने आप बन जाएगा. हिंदुओं के पास तो भारत के अलावा कोई देश भी नहीं है; एक के पास 57 देश हैं, किसी के पास 120, हमारे पास सिर्फ एक है, वह है भारत. कश्मीर से भागकर यहां आए, यहां से भागकर कहां जाएंगे? रोहिंग्या और बांग्लादेशी पांच करोड़ घुसपैठिए यहां आ चुके हैं, इन्हें इस देश से बाहर क्यों नहीं निकाला जाता? यह देश धर्मशाला नहीं कि कोई भी आए और बस जाए. अभी 'थूक जिहाद' जैसी बातें देखकर शर्म आती है; कौन किसी को खाने में थूक मिलाकर देता है? बात इतनी आगे बढ़ चुकी है कि कहना भी मुश्किल है, पर इंसान को अब जागना होगा.

'हिंदू खुद के लिए चुनौती बनता जा रहा है'

योगी के “बंटोगे तो कटोगे” और मोदी के “एक हैं, सेफ हैं” के नारे के बीच 23 नवंबर 2022 को देवबंद से प्रारंभ हुई भिक्षा यात्रा सिर्फ 60 लोगों के साथ निकली थी, लेकिन हैदराबाद और बिहार पहुंचते-पहुंचते इसकी संख्या लाखों-करोड़ों में पहुंच गई. अब जबकि इसके तीन साल पूरे हो रहे हैं, यह एक महज यात्रा नहीं बल्कि एक विचार और संकल्प का रूप ले चुकी है. स्वामी जी ने बता दिया है कि जातियों में विभाजित समाज स्वयं के लिए चुनौती बनता है, विघटनकारी हो जाता है.

'संघे शक्तिः कलौयुगे...'

जो शास्त्रों में कहा गया है कि 'संघे शक्तिः'-एक होकर रहना ही कलियुग का धर्म है. उसी को स्वामी जी चरितार्थ कर रहे हैं, धरातल पर उतार रहे हैं. ऊंच-नीच, वर्ण-भेद से ऊपर उठकर भाईचारा बढ़ाना आवश्यक है. बकौल स्वामी जी यह मांग और आवाज आज ही नहीं बल्कि 1990 में उठनी चाहिए थी, जब कश्मीरी हिंदुओं पर नरसंहार हुआ, उन्हें उन्हीं के घर से बंदूक की नोक पर भागने पर मजबूर कर दिया गया. इतना ही नहीं बंगाल, बांग्लादेश और अन्य जगहों की स्थिति भी हिंदू समाज के सामने है कि बंटने का अंजाम क्या होता है. इन सबको देखने के बावजूद अगर कोई 'गंगा-जमुनी तहज़ीब' और भाईचारे का नारा देता है, तो वह सरासर वास्तविकता से मुंह मोड़ रहा है.

क्या है “बटोगे तो कटोगे” का अर्थ?

स्वामी जी के अनुसार “बटोगे तो कटोगे” का अर्थ महज शारीरिक हिंसा नहीं बल्कि अपनी जड़ों, संस्कृति और अपनेपन से कट जाना भी है. जातियों में बंटकर हम अपने ही प्यार और सुरक्षा से कट जाते हैं. कश्मीर में छह महीने में ब्राह्मण लगभग समाप्त कर दिए गए. वे कोई चिड़िया नहीं थे जो उड़ गए. सब कुछ योजनाबद्ध था—इलेक्ट्रॉनिक तकनीक से लेकर नेटवर्किंग तक. ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या इस यात्रा की ज़रूरत नहीं थी? अधूरा ज्ञान खतरनाक होता है, और आज यही अधूरा ज्ञान समाज को तोड़ रहा है. 80 करोड़ लोग अनाथ जैसे छोड़ दिए गए-“आपके साथ जो हो रहा है, उसे सहन कीजिए”, किस आधार पर? “तहज़ीब के नाम पर सहन कीजिए”, “भाईचारे के नाम पर सहन कीजिए”, घर लुट जाए तो भी मौन रहिए. यह कैसा नाटक चल रहा है, समझ से परे है.

हिंदुओं की ही यात्रा पर क्यों पड़ते हैं पत्थर?

स्वामी जी की भिक्षा यात्रा पर सवाल उठाने वालों को स्वामी जी के इन सवालों का जवाब देना चाहिए कि भारत में हर बड़ी यात्रा पर पत्थर क्यों पड़ते हैं? उन्होंने आगे सवाल उठाया कि जिस देश में मूल भारतीयों को एक आधार कार्ड बनवाने के लिए कार्यालयों के चार-चार चक्कर लगाने पड़ते हैं, लेकिन घुसपैठियों को सब कुछ तुरंत मिल जाता है-स्थिति बेहद भयावह है. इसलिए अगर स्वामी जी कहते हैं कि जातियों में मत बंटिए. 1931 के ब्रिटिश सेंसस कमिश्नर हरबर्ट रिसले ने शारीरिक संरचना देखकर जातियां बांट दीं, और हम आज तक उसी ढांचे के गुलाम हैं. 'कास्ट' शब्द तक हमारा नहीं, पुर्तगाली भाषा से आया है. फिर भी पूरा राष्ट्र इसे ढो रहा है.

स्वामी जी देश को संगठित करने के लिए बेवजह नहीं निकले हैं. उन्होंने लगातार कहा है कि केरल, बंगाल, बिहार, बांग्लादेश की स्थितियां देखकर साफ है कि सनातनियों को संगठित होना ही पड़ेगा. स्वामी जी आगे कहते हैं कि अब यह महज लड़ाई नहीं बल्कि अस्तित्व का प्रश्न है. भिक्षा यात्रा से अब तक लाखों-लाख लोग यात्रा से जुड़ चुके हैं और आगे करोड़ों जुड़ेंगे.

ऐसे में एक सवाल यह उठता है कि यूपी का देवबंद, जो इस्लामी विचार का जनक माना जाता है, जहां धार्मिक कट्टरता है, जिसे इस्लाम का 'स्कूल ऑफ थॉट' कहा जाता है, वहीं से यह यात्रा क्यों निकली? स्वामी जी इस पर स्वामी विवेकानंद की एक कहावत का हवाला देते हैं कि हमें कोई भी कार्य की शुरुआत करने से पहले तीन चरण याद रखने चाहिए: "शुरुआत में अपमान, फिर मज़ाक, और अंत में विजय."

"मुसलमान एकजुट, मजबूत, हिंदू विभाजित, कमजोर"

बकौल स्वामी दीपांकर, भिक्षा यात्रा “जातियों में बंटे हिंदुओं को एक करने” का संकल्प है. मुसलमान पहले से अपने धर्म के आधार पर एक हैं. उन्हें “एक करने” की आवश्यकता नहीं. यह तो हिंदुओं में ही शर्मा, वर्मा, गुप्ता, यादव, वाल्मीकि, प्रजापति, सैनी—सब एक-दूसरे से अलग हो रखे हैं; जबकि मुस्लिम समाज में इतनी फिरक़ेबंदी होते हुए भी वे धर्म के नाम पर एकजुट रहते हैं. एक लकड़ी टूट जाती है, गठरी नहीं टूटती. वैसा ही हिंदू समाज को होना चाहिए.

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वर्तमान की स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए स्वामी दीपांकर ने कहा कि आज के हालात इतने भयावह हैं कि आगे 10-15 साल में कुछ जिलों का क्या होगा, कल्पना से बाहर है. लोग अपने रीति-रिवाज बदल रहे हैं, पहनावा बदल रहे हैं, भय के कारण स्थानीय संस्कृति बदल रहे हैं. महिलाओं तक ने सिंदूर लगाना बंद कर दिया, क्योंकि उन्हें उठा लिए जाने का डर है. पुरुष अपनी दाढ़ी-बाल बदल रहे हैं ताकि पहचान छुपी रहे. 70-30 का जनसांख्यिकीय संतुलन कई जगह तो लगभग पलट चुका है. बांग्लादेश की घटनाएं देखकर आज भी नींद नहीं आती. वहां केवल हिंदू टारगेट किए जा रहे हैं, वह भी विशेषकर उन वर्गों को जो संत रविदास के प्रिय वर्ग हैं. इतनी विभीषिका देखकर भी भारत में कोई खुलकर नहीं बोलता.

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