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मोदी सरकार के चक्रव्यूह में बुरी फंसी कांग्रेस, PM-CM को हटाने वाले बिल पर TMC के बाद सपा का भी JPC का बहिष्कार...विपक्षी एकजुटता की निकली हवा

मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और प्रधानमंत्री को 30 दिन की गिरफ्तारी की स्थिति में पद से हटाने वाले विधेयक पर गठित संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) को विपक्ष से झटका लगा है. टीएमसी और सपा ने समिति का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया. डेरेक ओ’ब्रायन ने इसे नाटक बताया, जबकि अखिलेश यादव ने विधेयक को त्रुटिपूर्ण और संघीय ढांचे के खिलाफ करार दिया. सपा के कदम से कांग्रेस पर भी दबाव बढ़ा है.

Narendra Modi-Mamata Banerjee-Akhilesh Yadav (File Photo)

देश की राजनीति में शनिवार को एक बड़ा घटनाक्रम देखने को मिला जब संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) के गठन को लेकर विपक्षी दलों में मतभेद साफ नजर आने लगे. यह जेपीसी उन विधेयकों और संवैधानिक संशोधन पर गठित की गई है जिनमें यह प्रावधान है कि यदि प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री या मंत्री किसी भी मामले में 30 दिन तक जेल में रहते हैं तो उन्हें पद से बर्खास्त कर दिया जाएगा.

दरअसल, टीएमसी (तृणमूल कांग्रेस) और सपा (समाजवादी पार्टी) ने इस जेपीसी का हिस्सा बनने से साफ इनकार कर दिया है. टीएमसी का विरोध पहले से तय माना जा रहा था, लेकिन सपा का कदम अप्रत्याशित साबित हुआ है जिसने विपक्षी खेमे में हलचल बढ़ा दी है. अब सबकी निगाहें कांग्रेस पर हैं, जो इस समिति में शामिल होने के पक्ष में दिख रही थी. मगर सपा के ताजा रुख ने कांग्रेस की रणनीति पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं.

टीएमसी ने क्या कहा?

तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और सांसद डेरेक ओ’ब्रायन ने जेपीसी को पूरी तरह खारिज कर दिया. उन्होंने कहा, “मोदी गठबंधन एक असंवैधानिक बिल की जांच के लिए जेपीसी बना रहा है. यह सब एक नाटक है और हमें इसे नाटक ही कहना था. हमें खुशी है कि हमने यह कदम उठाया है.” टीएमसी के इस बयान से साफ है कि पार्टी इसे राजनीतिक साजिश मान रही है और किसी भी तरह का सहयोग देने के मूड में नहीं है.

सपा ने क्या दिया है तर्क?

सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी इस समिति में शामिल होने से साफ इनकार कर दिया. अखिलेश ने कहा, “विधेयक का विचार ही गलत है. जिसने यह बिल पेश किया, उन्होंने खुद कई बार कहा कि उन पर झूठे केस लगाए गए थे. अगर कोई भी किसी पर फर्जी केस डाल सकता है तो फिर इस बिल का मतलब क्या है?” अखिलेश यादव ने आरोप लगाया कि सपा के नेताओं जैसे आज़म खान, रामाकांत यादव और इरफान सोलंकी पर भी झूठे मुकदमे दर्ज करके जेल भेजा गया. ऐसे में अगर कोई भी विपक्षी नेता झूठे मामलों में फंसाया जा सकता है तो इस कानून का इस्तेमाल राजनीतिक बदले की भावना से हो सकता है. सपा प्रमुख ने आगे कहा कि यह विधेयक भारत के संघीय ढांचे के खिलाफ है. उन्होंने समझाया कि मुख्यमंत्री अपने राज्यों में दर्ज मामलों को वापस ले सकते हैं और कानून-व्यवस्था पूरी तरह राज्य का विषय है. केंद्र का इस पर कोई नियंत्रण नहीं होगा. केंद्र तभी दखल दे सकता है जब मामला सीबीआई या ईडी जैसी केंद्रीय एजेंसियों से जुड़ा हो.

क्यों उठ रही जेपीसी की विश्वसनीयता पर सवाल 

डेरेक ओ’ब्रायन ने जेपीसी की विश्वसनीयता पर गंभीर सवाल उठाए. उनका कहना था कि पहले जेपीसी को एक सशक्त मंच माना जाता था जहां जनहित और जवाबदेही सुनिश्चित होती थी. लेकिन 2014 के बाद से इसका स्वरूप काफी बदल गया है. उन्होंने आरोप लगाया कि सरकारें अब इसका राजनीतिक इस्तेमाल करने लगी हैं. विपक्ष के सुझाव और संशोधन खारिज कर दिए जाते हैं और बहस महज औपचारिकता बनकर रह जाती है. ओ’ब्रायन ने कांग्रेस शासन के समय बने हर्षद मेहता घोटाले और बोफोर्स मामले की जेपीसी का उदाहरण भी दिया. उन्होंने यहां तक कहा कि बोफोर्स मामले में कांग्रेस सांसद पर रिश्वत लेने का आरोप भी लगा था.

विपक्ष की एकजुटता पर असर

टीएमसी के बहिष्कार की संभावना पहले से जताई जा रही थी, लेकिन सपा का कदम विपक्षी एकता के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है. अब विपक्षी खेमे में असमंजस की स्थिति है. कई दलों का मानना है कि संसदीय समितियों में हुई बहस आगे चलकर अदालतों और जनता के बीच एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है. लेकिन जब प्रमुख विपक्षी दल ही इन समितियों का हिस्सा नहीं बनेंगे तो सरकार को खुली छूट मिल जाएगी. इससे विपक्ष की सामूहिक आवाज कमजोर हो जाएगी और लोकतंत्र में संतुलन बिगड़ सकता है.

कांग्रेस पर दबाव

अब सबकी नजरें कांग्रेस पर टिकी हैं. कांग्रेस ने अभी तक जेपीसी में शामिल होने के संकेत दिए थे. लेकिन सपा और टीएमसी के बहिष्कार के बाद उस पर विपक्षी एकजुटता का दबाव बढ़ गया है. अगर कांग्रेस शामिल होती है तो विपक्षी खेमे में दरार और गहरी हो जाएगी. लेकिन अगर कांग्रेस भी बहिष्कार करती है तो सरकार पर सवाल उठाने का एक अहम मंच विपक्ष के हाथ से निकल जाएगा.

क्या है आगे का रास्ता

जेपीसी को लेकर विपक्षी राजनीति में जिस तरह का गतिरोध पैदा हुआ है, उससे साफ है कि आने वाले दिनों में यह बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनने वाला है. एक तरफ सरकार इसे पारदर्शिता और जवाबदेही से जोड़कर पेश कर रही है, वहीं विपक्ष इसे असंवैधानिक और राजनीतिक हथियार बता रहा है. विशेषज्ञों का मानना है कि यह विवाद केवल विधेयक तक सीमित नहीं रहेगा बल्कि संसद में विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच टकराव और बढ़ाएगा.

बताते चलें कि जेपीसी को लेकर उठा यह विवाद केवल संसदीय राजनीति की कार्यवाही नहीं बल्कि विपक्षी एकजुटता की असली परीक्षा है. अगर विपक्ष बिखरा रहा तो सरकार को अपनी राह आसान नज़र आएगी. लेकिन यदि विपक्ष एक मंच पर खड़ा हुआ तो यह बहस लोकतंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण पड़ाव साबित हो सकती है.

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