CD टूटी, गवाह पलटे और सबूतों का अभाव... कुछ इस तरह मालेगांव ब्लास्ट केस में बरी हुए साध्वी प्रज्ञा समेत 7 आरोपी
मुंबई की स्पेशल कोर्ट ने मालेगांव बम धमाके मामले में सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया है. इनमें साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, कर्नल प्रसाद पुरोहित, मेजर रमेश उपाध्याय समेत अन्य शामिल थे. कोर्ट ने कहा कि अभियोजन पक्ष आरोप साबित करने में असफल रहा और बम बनाने, आरडीएक्स लाने या घटना स्थल से जुड़ी कोई ठोस साजिश सामने नहीं आई. दो आरोपी अब भी फरार हैं, जिनके खिलाफ नई चार्जशीट दाखिल की जाएगी.
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मुंबई की एक विशेष एनआईए कोर्ट ने साल 2008 में हुए मालेगांव बम धमाके के मामले में बड़ा और बहुप्रतीक्षित फैसला सुनाते हुए सभी आरोपियों को बरी कर दिया है. इस फैसले ने 16 साल पुराने उस दर्द को एक बार फिर ताजा कर दिया है, जिसमें 6 निर्दोष नागरिकों की जान गई और सौ से ज्यादा लोग घायल हुए थे. इस केस की शुरुआत एक खौफनाक धमाके से हुई, लेकिन उसका अंत कानूनी प्रक्रियाओं की लंबी, जटिल और विवादित यात्रा के बाद इस फैसले के रूप में हुआ, जहां न्यायालय ने कहा कि अभियोजन पक्ष आरोप साबित नहीं कर सका.
कौन-कौन थे आरोपी
इस केस में जिन सात प्रमुख आरोपियों ने ट्रायल का सामना किया उनमें पूर्व सांसद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल (सेवानिवृत्त) प्रसाद पुरोहित, मेजर रमेश उपाध्याय, सुधाकर चतुर्वेदी, अजय राहिरकर, समीर कुलकर्णी और सुधाकरधर द्विवेदी शामिल हैं. इन सभी पर साजिश रचने, आतंक फैलाने, बम बनाने और धार्मिक उन्माद भड़काने जैसे गंभीर आरोप लगाए गए थे. हालांकि, कोर्ट ने साफ किया कि अभियोजन पक्ष न तो इन आरोपों को पर्याप्त सबूतों के साथ सिद्ध कर पाया और न ही घटना के पीछे कोई सशक्त साजिश की कड़ी जोड़ सका.
केस में सबूतों का आभाव
विशेष जज ए. के. लाहोटी ने कहा कि घटना स्थल पर बरामद सबूतों में गंभीर खामियां थीं. मसलन, जिस बाइक में बम रखा गया था, वह किसने पार्क की, यह कोई नहीं जानता. साध्वी प्रज्ञा पर बाइक से जुड़ा आरोप लगाया गया था, लेकिन स्वामित्व साबित नहीं हो सका. कोर्ट ने यह भी माना कि फॉरेंसिक रिपोर्ट में स्पष्टता का अभाव था, घटनास्थल पर बैरिकेडिंग नहीं की गई, पंचनामा अधूरा रहा और इस कारण निष्कर्ष पर पहुंचना मुश्किल हो गया.
आरोपों की बुनियाद और आधार कमजोर
अभियोजन पक्ष ने कॉल इंटरसेप्ट्स, सीडीआर (कॉल डेटा रिकॉर्ड्स) और गुप्त बैठकों की सीडी को मुख्य आधार बनाया था. लेकिन अधिकांश इंटरसेप्ट्स न्यायिक रूप से अमान्य पाए गए क्योंकि उन्हें प्रमाणित करने के लिए ज़रूरी धारा 65बी सर्टिफिकेट मौजूद नहीं था. वहीं जिन सीडी में साजिश की बातचीत रिकॉर्ड होने का दावा था, वे टूट चुकी थीं और उनकी प्रतियां भी अदालत में पेश नहीं की गईं. गवाहों में से 39 ने अपने बयान बदल दिए, जिससे अभियोजन की कहानी और भी कमजोर हो गई.
एनआईए की भूमिका पर भी उठे सवाल
हालांकि इस मामले की शुरुआती जांच महाराष्ट्र एटीएस ने की थी, लेकिन बाद में इसकी कमान एनआईए को सौंप दी गई. अभियोजन पक्ष के वकील ने दावा किया कि घटनाओं की एक सीरीज बनाकर आरोपियों के खिलाफ ठोस केस तैयार किया गया था, लेकिन अदालत ने पाया कि यह सिर्फ "शक की एक थ्योरी" भर थी. एनआईए की चार्जशीट में जिन बातों को आधार बनाया गया था, उनमें से कई कोर्ट में टिक नहीं पाईं. मसलन, आरोप था कि कर्नल पुरोहित ने RDX मंगवाया और बम बनवाया, लेकिन न तो RDX की बरामदगी का पुख्ता आधार था और न ही बम बनाने की कोई प्रत्यक्ष गवाही.
बचाव पक्ष के आरोप झूठे सबूत और प्रताड़ना
आरोपियों के वकीलों ने अदालत में कई गंभीर बातें उठाईं. उन्होंने कहा कि सेना के अधिकारियों को बयान देने के लिए प्रताड़ित किया गया. कुछ गवाहों ने इसकी शिकायत मानवाधिकार आयोग तक की, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. इसके अलावा, आरोप लगाया गया कि कुछ इलेक्ट्रॉनिक सबूत जैसे लैपटॉप और दस्तावेज जब्त करने की प्रक्रिया में भी अनियमितताएं थीं और उन्हें जानबूझकर प्लांट किया गया था.
क्या 'अभिनव भारत' आतंकी संगठन था?
मामले की जांच में 'अभिनव भारत' संगठन का नाम सामने आया, जिसे अभियोजन ने एक साजिशकर्ता समूह के रूप में पेश किया. अजय राहिरकर को इस संगठन का कोषाध्यक्ष बताया गया और आरोप था कि उसने विस्फोट की फंडिंग की. लेकिन इस थ्योरी के समर्थन में कोई ठोस वित्तीय लेन-देन या दस्तावेज नहीं पाए गए. कोर्ट ने स्पष्ट किया कि संगठन के फंड का इस्तेमाल आतंकी गतिविधियों में हुआ हो, इसका कोई प्रमाण नहीं है.
धमाके में गई थीं 6 जानें, क्या अब न्याय हुआ?
29 सितंबर 2008 को मालेगांव की एक व्यस्त गली में पार्क की गई बाइक में जोरदार धमाका हुआ था. इस हादसे में 6 लोगों की जान गई और करीब 100 लोग घायल हुए थे. शुरुआत में इसे सांप्रदायिक आतंक की साजिश माना गया और केस में हिंदू कट्टरपंथी एंगल सामने आया. लेकिन अब, 16 साल बाद अदालत ने कहा है कि न्याय के लिए सिर्फ थ्योरी नहीं, ठोस सबूत चाहिए. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या जो लोग मारे गए, उन्हें कभी न्याय मिलेगा?
अब आगे क्या होगा?
कोर्ट ने यह भी कहा कि जो दो आरोपी अभी फरार हैं, उनके खिलाफ नए सिरे से चार्जशीट दाखिल की जाएगी. ऐसे में यह मामला पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है. साथ ही, यह फैसला अभियोजन और जांच एजेंसियों के काम करने के तरीकों पर भी गहरे सवाल खड़े करता है. क्या जांच सही दिशा में थी? क्या राजनीतिक दबावों ने केस को प्रभावित किया? और सबसे अहम क्या कानून की प्रक्रिया में कहीं न्याय गुम तो नहीं हो गया?
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बताते चलें कि मालेगांव केस में आया यह फैसला कानूनी दृष्टि से एक मील का पत्थर हो सकता है, लेकिन इसके बाद देश में एक नई बहस जरूर शुरू होगी. इस केस ने दिखाया कि आतंकवाद जैसे गंभीर आरोपों की जांच सिर्फ शक या थ्योरी के आधार पर नहीं की जा सकती. न्याय की बुनियाद सिर्फ इरादों पर नहीं, साक्ष्यों पर टिकती है. और जब साक्ष्य ही नहीं हों, तो किसी को दोषी ठहराना संविधान और कानून दोनों के खिलाफ है.
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