अखिलेश यादव के PDA फॉर्मूले की BJP ने ढूंढ ली काट… नए प्रदेश अध्यक्ष का नाम सपा की बढ़ाएगा सिरदर्दी
उत्तर प्रदेश में बीजेपी को दो साल बाद नया प्रदेश अध्यक्ष मिलने वाला है. इस बार अध्यक्ष का चुनाव सामाजिक और क्षेत्रीय संतुलन के अनुसार होगा, खासकर ओबीसी वर्ग से, ताकि समाजवादी पार्टी के 'पीडीए' फार्मुले की काट बनाई जा सके.
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उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक बार फिर बड़ा बदलाव होने जा रहा है. सत्ताधारी दल भारतीय जनता पार्टी (BJP) को करीब दो साल बाद नया प्रदेश अध्यक्ष मिलने वाला है. शनिवार को नामांकन प्रक्रिया पूरी होने के बाद रविवार को केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल औपचारिक रूप से नए अध्यक्ष के नाम का ऐलान करेंगे. इसको लेकर राजधानी लखनऊ में राजनीतिक हलचल तेज हो चुकी है. बड़े नेताओं का जमावड़ा शुरू हो गया है और पार्टी संगठन पूरी तरह एक्शन मोड में नजर आ रहा है.
सूत्रों के मुताबिक इस बार अध्यक्ष के ऐलान को लेकर बीजेपी बड़ा कार्यक्रम कर सकती है. धूमधाम के साथ नए चेहरे को सामने लाने की तैयारी है. हालांकि सबसे बड़ा सवाल यही है कि यूपी बीजेपी की कमान आखिर किसे सौंपी जाएगी. पार्टी ने अभी तक सस्पेंस बनाए रखा है. लेकिन जो बातें निकलकर सामने आ रही हैं उसके मुताबिक इस बार फैसला सामाजिक और क्षेत्रीय संतुलन को ध्यान में रखकर लिया जाएगा.
सपा के PDA की काट निकालने की कोशिश
यूपी में पार्टी की कमान सौंपने के लिए बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती समाजवादी पार्टी के 'पीडीए' फार्मुले का जवाब तैयार करना है. अखिलेश यादव ने पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक वर्ग को एकजुट करने की रणनीति बनाई है. 2024 के लोकसभा चुनाव में इसका असर भी दिखा. ऐसे में बीजेपी अब ऐसा चेहरा आगे लाना चाहती है जो इस फार्मुले की काट बन सके. यही वजह है कि इस बार ओबीसी वर्ग से अध्यक्ष बनाए जाने की संभावना मजबूत मानी जा रही है. सूत्रों की मानें तो ओबीसी और ब्राह्मण दोनों वर्गों के नेताओं के नाम चर्चा में हैं. ओबीसी समाज से आने वाले केंद्रीय राज्य मंत्री पंकज चौधरी के नाम को लेकर अंदरखाने काफी तैयारी बताई जा रही है. इसके अलावा केंद्रीय मंत्री धर्मपाल लोधी और बीएल वर्मा के नाम पर भी मंथन हुआ है. बता दें कि बीजेपी का इतिहास रहा है कि वह आखिरी वक्त पर ऐसा फैसला लेती है जिससे सब चौंक जाते हैं. इसलिए अभी किसी एक नाम पर मुहर लगाना आसान नहीं है.
कुर्मी वोट बैंक पर BJP की नजर
बीजेपी की चिंता का बड़ा कारण कुर्मी वोट बैंक है. 2024 के चुनाव में समाजवादी पार्टी ने कुर्मी नेताओं को तरजीह दी. इसका नुकसान बीजेपी को उठाना पड़ा. 2022 तक कुर्मी वोटों का बड़ा हिस्सा बीजेपी के साथ था. पूर्वांचल के करीब 20 जिलों में कुर्मी समाज का खासा प्रभाव है. इनकी आबादी करीब 9 फीसदी मानी जाती है. यादवों के बाद यह दूसरा सबसे बड़ा पिछड़ा वर्ग है. बीजेपी चाहती है कि यह वर्ग फिर से पार्टी के साथ मजबूती से जुड़े. इसके साथ ही पार्टी अपना दल के बढ़ते दबाव को भी संतुलित करना चाहती है. यही वजह है कि कुर्मी या किसी अन्य प्रभावशाली ओबीसी चेहरे पर दांव लगाया जा सकता है. धर्मपाल लोधी का नाम भी इसी रणनीति के तहत सामने आ रहा है. कल्याण सिंह के बाद लोधी समाज से कोई बड़ा चेहरा प्रदेश स्तर पर नहीं उभरा. जबकि यह समाज लंबे समय से बीजेपी का समर्थक रहा है. पश्चिम और मध्य यूपी में लोधी समाज का अच्छा प्रभाव है.
बड़ा राजनीतिक संदेश दे सकती है बीजेपी
निषाद समाज को लेकर भी बीजेपी की पकड़ कमजोर मानी जाती है. इस समाज में पार्टी को अक्सर गठबंधन का सहारा लेना पड़ता है. ऐसे में अगर बीजेपी इस वर्ग से अध्यक्ष चुनती है तो यह बड़ा राजनीतिक संदेश होगा. बिहार में निरंजन ज्योति को बड़ी जिम्मेदारी देकर पार्टी पहले ही ऐसा प्रयोग कर चुकी है. अगर ब्राह्मण चेहरे की बात करें तो पूर्व सांसद हरीश द्विवेदी और यूपी बीजेपी महामंत्री गोविंद शुक्ला के नाम चर्चा में हैं. ब्राह्मण वोट बैंक अब भी कई क्षेत्रों में निर्णायक भूमिका निभाता है. इसलिए इस विकल्प को भी पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता.
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बताते चलें कि एक बात तय है कि यूपी बीजेपी अध्यक्ष का चुनाव सिर्फ संगठन तक सीमित नहीं है. इसका सीधा असर 2027 के विधानसभा चुनाव पर पड़ेगा. पार्टी ऐसा नेता चुनेगी जो सरकार और संगठन के बीच बेहतर तालमेल बना सके और विपक्ष की रणनीतियों को कमजोर कर सके. अब सभी की नजरें रविवार पर टिकी हैं. देखना दिलचस्प होगा कि बीजेपी इस बार किस नाम से सियासी बाजी पलटती है.
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