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छठ महापर्व के पीछे छिपी कर्ण की रोचक कहानी, असुर पिता, सूर्यदेव और एक अनोखा वरदान

छठ पूजा का सीधा संबंध सूर्यदेव और उनके पुत्र कर्ण से माना जाता है. पौराणिक कथाओं के अनुसार, सूर्यदेव ने असुर को वरदान देकर कर्ण को अपना पुत्र स्वीकार किया था. कहा जाता है कि कर्ण प्रतिदिन सूर्य की उपासना करते थे और इसी से उन्हें अतुलनीय शक्ति प्राप्त होती थी. इसलिए छठ पर्व में सूर्यदेव की विशेष पूजा की जाती है.

25 Oct, 2025
( Updated: 05 Dec, 2025
06:51 AM )
छठ महापर्व के पीछे छिपी कर्ण की रोचक कहानी, असुर पिता, सूर्यदेव और एक अनोखा वरदान

छठ पूजा, भारतीय संस्कृति में एक अनूठा और पवित्र पर्व है, जो विशेष रूप से बिहार, झारखंड, और पूर्वी उत्तर प्रदेश में उत्साह के साथ मनाया जाता है. यह पर्व सूर्य देव और छठी मैया की पूजा के लिए प्रसिद्ध है, जो प्रकृति और जीवन के प्रति कृतज्ञता का प्रतीक है. चार दिनों तक चलने वाला यह पर्व न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि सामाजिक समरसता और आत्मशुद्धि का भी माध्यम है. इस पूजा का एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक और पौराणिक आधार महाभारत के महान पात्र सूर्यपुत्र कर्ण से भी जुड़ा हुआ है, जिन्हें उनकी वीरता, दानशीलता और धर्मनिष्ठा के लिए आज भी याद किया जाता है.

छठ पूजा का महत्व और स्वरूप

छठ पूजा का आयोजन कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को किया जाता है, जिसके कारण इसे "छठ" कहा जाता है. यह पर्व चार दिनों तक चलता है, जिसमें नहाय-खाय, खरना, डूबते सूर्य को अर्घ्य और उगते सूर्य को अर्घ्य जैसे अनुष्ठान शामिल हैं. व्रती इस दौरान कठिन नियमों का पालन करते हैं, जिसमें निर्जल उपवास और सूर्य देव को अर्घ्य देना प्रमुख है. मान्यता है कि इस पूजा से न केवल पापों का नाश होता है, बल्कि परिवार में सुख, समृद्धि और स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है. साथ ही, यह पूजा संतान की रक्षा और मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए भी की जाती है.

महाभारत का अद्भुत योद्धा

महाभारत में कर्ण को एक महान योद्धा, दानवीर और धर्म के प्रति समर्पित व्यक्तित्व के रूप में चित्रित किया गया है. कर्ण का जन्म माता कुंती के सूर्य मंत्र के जाप से हुआ था, जिसके कारण वे सूर्य देव के पुत्र कहलाए. सामाजिक दबावों के कारण कुंती ने नवजात कर्ण को नदी में बहा दिया, जहां उन्हें राधा और अधिरथ दंपति ने पाला. कर्ण में सूर्य देव की तेजस्विता और दिव्यता स्पष्ट रूप से झलकती थी. उनकी वीरता और उदारता की कहानियां आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं.

कर्ण का पूर्वजन्म

पौराणिक कथाओं के अनुसार, कर्ण का पूर्वजन्म दंभोद्भवा नामक असुर के रूप में था. सूर्य देव ने दंभोद्भवा को 1000 कवच और दिव्य कुंडल प्रदान किए थे, जो उसे लगभग अजेय बनाते थे. इस वरदान के अहंकार में दंभोद्भवा अत्याचारी हो गया. तब नर और नारायण ऋषियों ने तपस्या के बल पर उसके 999 कवच नष्ट कर दिए. अंतिम कवच के साथ दंभोद्भवा सूर्य लोक में छिप गया. सूर्य देव, उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर, उसे अगले जन्म में अपने पुत्र के रूप में जन्म लेने का वरदान दिया. इस प्रकार कर्ण का जन्म सूर्य देव के पुत्र के रूप में हुआ, जिसमें उनके पूर्वजन्म की भक्ति और सूर्य के प्रति समर्पण का प्रभाव स्पष्ट था.

कर्ण और छठ पूजा का संबंध

कर्ण का संबंध छठ पूजा से तब स्थापित हुआ, जब वे अंग देश (वर्तमान बिहार के भागलपुर और मुंगेर क्षेत्र) के राजा बने. दुर्योधन की मित्रता और समर्थन से कर्ण को अंग देश का राजा बनाया गया था. इस क्षेत्र में छठ पूजा की परंपरा पहले से प्रचलित थी, जिसमें सूर्य देव और छठी मैया को अर्घ्य अर्पित किया जाता था. सूर्यपुत्र होने के नाते कर्ण ने इस पूजा को विशेष महत्व दिया और इसे नियमित रूप से अपनाया. कर्ण प्रतिदिन सुबह सूर्य नमस्कार करते और सूर्य देव को अर्घ्य अर्पित करते थे. उनकी यह भक्ति छठ पूजा के अनुष्ठानों से मेल खाती थी. उन्होंने न केवल सूर्य देव की पूजा को बढ़ावा दिया, बल्कि छठी मैया की स्तुति को भी अपने जीवन का हिस्सा बनाया. कर्ण की यह भक्ति और उनके द्वारा छठ पूजा को अपनाने से इस परंपरा को अंग देश में और अधिक स्थायी रूप मिला.

छठ पूजा का सामाजिक और सांस्कृतिक महत्व

छठ पूजा केवल धार्मिक अनुष्ठान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह सामाजिक एकता और पर्यावरण के प्रति सम्मान का भी प्रतीक है. इस पूजा में नदियों, तालाबों और जलाशयों के किनारे सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा प्रकृति के प्रति गहरी श्रद्धा को दर्शाती है. कर्ण जैसे महान व्यक्तित्व के इस पूजा से जुड़ने से इसकी महत्ता और बढ़ गई. आज भी बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में छठ पूजा को सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक गौरव के रूप में मनाया जाता है.

छठ पूजा एक ऐसा पर्व है, जो सूर्य देव और छठी मैया के प्रति भक्ति के साथ-साथ आत्मशुद्धि और सामाजिक एकता का संदेश देता है. सूर्यपुत्र कर्ण के माध्यम से इस पूजा की परंपरा को न केवल मजबूती मिली, बल्कि यह बिहार और पूर्वांचल की सांस्कृतिक पहचान का हिस्सा बन गई. कर्ण की वीरता, दानशीलता और सूर्य भक्ति आज भी इस पर्व के माध्यम से जीवित है, जो हर वर्ष लाखों लोगों को प्रेरित करती है.

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