सियासी ज़मीन खोती द्रविड़ पार्टियाँ, हिन्दी और तीन-भाषा नीति विरोध के ज़रिए आग सुलगाने की कोशिश!
द्रविड़ पार्टियाँ अपने सियासी अस्तित्व को बचाने के लिए हिन्दी और तीन-भाषा नीति का विरोध कर रही हैं, यह एक नई राजनीतिक रणनीति के तौर पर उभर रहा है। स्टालिन का विरोध और उसका प्रतिकार दक्षिण से ही होना नई राजनीति की ओर संकेत दे रहा है।
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तीन-भाषा नीति पर मचा विवाद
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दक्षिण भारत में विरोध का जोर
स्टालिन को पहली बार दक्षिण से ही मिल रही चुनौती!
एक अन्य ट्वीट में स्टालिन ने भारत की अन्य भाषाएँ और बोलियों को संबोधित किया और कहा:
मेरे प्रिय बहनों और भाइयों,
क्या आपने कभी सोचा है कि हिंदी ने कितनी भारतीय भाषाओं को निगल लिया है? भोजपुरी, मैथिली, अवधी, ब्रज, बुंदेली, गढ़वाली, कुमाऊंनी, मगही, मारवाड़ी, मालवी, छत्तीसगढ़ी, संथाली, अंगिका, हो, खड़िया, खोरठा, कुर्माली, कुड़ुख, मुंडारी और भी बहुत सी भाषाएँ अब अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही हैं।
एक समान हिंदी पहचान की धक्का देने वाली कोशिश ही प्राचीन मातृभाषाओं को मार डालती है। उत्तर प्रदेश और बिहार कभी "हिंदी हृदय भूमि" नहीं थे। उनकी असली भाषाएँ अब अतीत के अवशेष बन चुकी हैं।
तमिलनाडु इसका विरोध करता है क्योंकि हमें पता है कि इसका अंत कहाँ होता है।
हिन्दी विरोध की राजनीति में पहली बार हुआ जब स्टालिन का विरोध दक्षिण भारत के नेता ही कर रहे हैं। तमिलनाडु बीजेपी के अध्यक्ष के. अन्नामलाई ने पलटवार करते हुए कहा कि द्रमुक (DMK) सरकार पर पाखंड का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि तमिलनाडु सरकार सरकारी स्कूलों में तीसरी भाषा सीखने का अवसर नहीं देती, लेकिन निजी स्कूलों में यह सुविधा उपलब्ध है। स्टालिन कहते हैं कि वे किसी भाषा का विरोध नहीं करते, लेकिन सरकारी स्कूलों में हिंदी क्यों नहीं पढ़ाई जा सकती? क्या इसका मतलब यह है कि अगर कोई हिंदी सीखना चाहता है, तो उसे DMK नेताओं के निजी स्कूलों में दाखिला लेना पड़ेगा?
इसके अलावा, अन्नामलाई ने रुपये के प्रतीक (₹) को तमिल लिपि के 'ரூ' से बदलने के द्रमुक सरकार के फैसले की भी आलोचना की। उन्होंने इसे ध्यान भटकाने की राजनीति करार दिया और कहा कि राज्य में असली मुद्दों से लोगों का ध्यान हटाने के लिए यह किया गया है।
पवन कल्याण का सवाल: हिंदी फिल्मों से मुनाफा लेकिन हिंदी विरोध? दूसरी तरफ़ आंध्र प्रदेश के उपमुख्यमंत्री और जनसेना पार्टी के प्रमुख पवन कल्याण ने भी तमिलनाडु के हिंदी विरोध पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने पूछा कि अगर तमिलनाडु के नेता हिंदी का इतना विरोध करते हैं, तो वे अपनी फिल्मों को हिंदी में क्यों डब करते हैं? पवन कल्याण ने आगे कहा कि तमिलनाडु के नेता हिंदी का विरोध करते हैं, लेकिन उनकी फिल्में हिंदी में डब होकर पूरे भारत में करोड़ों रुपये कमाती हैं। क्या यह दोहरा मापदंड या पाखंड नहीं है?
वहीं DMK प्रवक्ता ने इस बयान पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि तमिलनाडु ने कभी भी हिंदी सीखने वालों का विरोध नहीं किया है, बल्कि हिंदी थोपने के खिलाफ हैं।
केंद्र सरकार का रुख
केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने स्पष्ट किया है कि त्रिभाषा नीति के तहत किसी भी भाषा को जबरदस्ती नहीं थोपा जाएगा। हालांकि, तमिलनाडु को आशंका है कि हिंदी को प्राथमिकता दी जा सकती है, जिससे राज्य की भाषाई स्वतंत्रता खतरे में पड़ सकती है।
आगे का रास्ता
इस मुद्दे का समाधान केंद्र और राज्य सरकारों के बीच रचनात्मक बातचीत और समझौते से हो सकता है। भाषा से जुड़ी राजनीति को टकराव का मुद्दा बनाने के बजाय, इसे छात्रों के हितों को ध्यान में रखकर हल करना आवश्यक है। त्रिभाषा नीति और तमिलनाडु में हिंदी थोपने का मुद्दा भाषाई विविधता, सांस्कृतिक पहचान और राजनीतिक समीकरणों से जुड़ा हुआ है। एम.के. स्टालिन, के. अन्नामलाई और पवन कल्याण जैसे प्रमुख नेताओं की बयानबाजी ने इस बहस को और तेज कर दिया है। हालांकि, अंततः यह बहस शिक्षा प्रणाली और छात्रों के भविष्य से जुड़ी हुई है, इसलिए सरकारों को व्यावहारिक समाधान निकालने की जरूरत है।
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