दशकों पुरानी दोस्ती और मजबूत रणनीतिक साझीदारी पर कैसे भारी पड़ी मोदी-ट्रंप की 35 मिनट की फोन कॉल...17 जून को क्या आखिर क्या हुआ था?
दशकों पुरानी दोस्ती मजबूत रणनीतिक साझीदारी पर 35 मिनट की फोन कॉल और डोनाल्ड ट्रंप का मध्यस्थता की जिद पर अड़ना कैसे भारी पड़ गई? कैसे पीएम मोदी के दो टूक बयान, व्हाइट हाउस आने से इनकार से ट्रंप और अमेरिका चिढ़ गया और रवैया बदल गया. 17 जून को क्या आखिर क्या हुआ था?
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जम्मू और कश्मीर के पहलगाम में 22 अप्रैल को निर्दोष लोगों पर धर्म पूछकर हुआ आतंकी हमला, जिसमें 26 निर्दोष लोगों की जान चली गई, ने भारत-अमेरिका संबंध सहित पूरे दक्षिण एशिया की कूटनीतिक राजनीति बदल कर रख दी. ऑपरेशन सिंदूर, पाक के साथ सैन्य तनाव, और टैरिफ वार ने काफी सुर्खियां बटोरीं. अमेरिका के साथ ट्रेड टैरिफ और ट्रंप के लगातार मध्यस्थता के दावों ने नई दिल्ली और वॉशिंगटन के संबंधों में तल्खी पैदा कर दी. बड़ा सवाल ये है कि अमेरिका की किस दादागिरी के कारण भारत भी जिद पर अड़ गया? और कैसे कभी एक दूसरे के प्रिय मित्र कहलाने वाले मोदी और ट्रंप के तनावपूर्ण रिश्ते हो गए.
दरअसल मई महीने में 6 मई से लेकर 10 मई तक, भारत और पाकिस्तान के बीच चार दिनों तक चले सैन्य टकराव के बाद जैसे ही दोनों देशों ने 10 मई को संघर्षविराम पर सहमति जताई, अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने भारत के आधिकारिक बयान आने से पहले ही ट्वीट कर दिया कि बधाई हो, भारत-पाक मध्यस्था के लिए मान गए हैं. उन्होंने दावा किया कि उन्होंने ही इस युद्ध को रुकवाया.
हालांकि न तो विदेश मंत्रालय और न ही मोदी सरकार ने कभी ये स्वीकार किया कि ये मध्यस्थता ट्रंप की वजह से हुई है. भारत का हमेशा से ही कहना रहा है कि इस तनाव को रोकने के लिए पाकिस्तान ने गुहार लगाई और उसके DGMO का अपने भारतीय समकक्ष के पास फोन आया. ट्रंप के लगातार बयानों और बिना भारत की सीजफायर पर पुष्टि के ट्वीट करने के कारण नई दिल्ली में, सरकार और कूटनीतिक सर्कल में नाराज़गी देखी गई. ट्रम्प द्वारा बार-बार यह कहा गया कि उन्होंने संभावित परमाणु युद्ध को रोका, जिस कारण विदेश सचिव विक्रम मिसरी, विदेश मंत्री एस जयशंकर सहित भारतीय राजनयिकों को मजबूरन सार्वजनिक रूप से प्रतिक्रिया देनी पड़ी और स्पष्टीकरण देना पड़ा.
कब बिगड़े हालात, 17 जून को क्या हुआ था?
ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के मुताबिक हालात तब और बिगड़ गए जब 17 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और ट्रम्प के बीच फोन पर बात हुई. ट्रम्प कनाडा में हुए ग्रुप ऑफ सेवन सम्मेलन को अधूरा छोड़कर निकल चुके थे और मोदी से आमने-सामने की मुलाकात संभव नहीं थी.
मध्यस्थता की बात न स्वीकारने से चिढ़े ट्रंप
लगभग 35 मिनट चली इस बातचीत में प्रधानमंत्री मोदी ने स्पष्ट रूप से कहा कि संघर्षविराम पर भारत और पाकिस्तान के बीच सीधे बातचीत हुई थी, पाकिस्तान की ओर से आग्रह के बाद. मोदी ने यह भी दोहराया कि भारत किसी तीसरे पक्ष की मध्यस्थता न पहले स्वीकारता था, न भविष्य में करेगा. इस दौरान ट्रम्प ने उनकी बातों को गंभीरता से सुना.
भारतीय अधिकारियों के अनुसार, इस बातचीत की आवश्यकता इसलिए पड़ी क्योंकि उन्हें जानकारी मिली थी कि ट्रम्प अगले दिन पाकिस्तानी सेना प्रमुख असीम मुनीर को व्हाइट हाउस में लंच के लिए बुला रहे हैं. भले ही अमेरिका ने आधिकारिक रूप से ट्रम्प की मध्यस्थता को भारत द्वारा मान्यता देने की मांग नहीं की थी, लेकिन इस फोन कॉल के बाद व्हाइट हाउस के रुख में बदलाव स्पष्ट दिखा.
मोदी-मुनीर को एक जैसा दिखाना चाहते थे ट्रंप?
रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि G7 समिट के बाद ट्रंप मोदी को अमेरिका बुलाना चाहते थे. उनकी योजना थी कि मोदी और मुनीर को एक मंच पर बैठाकर संघर्षविराम का श्रेय खुद को दिलवाया जाए, जिससे दुनिया के सामने ट्रंप को एक "शांति दूत" के रूप में पेश किया जा सके.
लेकिन जब प्रधानमंत्री मोदी ने इस प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया और अमेरिका आने से मना कर दिया, तो ट्रंप को यह बात बेहद नागवार गुज़री. रिपोर्ट कहती है कि यही वह मोड़ था जब ट्रंप ने निजी तौर पर भारत और मोदी को "सबक सिखाने" की ठान ली.
इसके बाद ही भारत पर 50% टैरिफ की घोषणा की गई, जिसमें रूसी तेल खरीदने को लेकर भी सज़ा शामिल थी. साथ ही ट्रंप ने भारत को "डेड इकोनॉमी" और "अप्रिय व्यापारिक साझेदार" तक कह डाला.
मोदी ने इस पर सख्त प्रतिक्रिया दी और कहा कि भारत अपने हितों से कोई समझौता नहीं करेगा. हालांकि तब से दोनों नेताओं के बीच कोई बात नहीं हुई, लेकिन मोदी ने पुतिन से संपर्क कर उन्हें भारत आने का निमंत्रण दिया.
पूर्व अमेरिकी राजदूत एरिक गार्सेटी ने चेताया कि तीन दशकों से बनी द्विपक्षीय समझदारी इस तरह के टकराव से खतरे में पड़ सकती है.
ब्लूमबर्ग ने अपनी इस रिपोर्ट में आगे कहा कि जब ट्रम्प इस साल फिर से व्हाइट हाउस लौटे तो ऐसा लगा जैसे वे पहले कार्यकाल के घनिष्ठ भारत-अमेरिका संबंधों को आगे बढ़ाएंगे. मोदी और ट्रम्प ने उस समय एक-दूसरे को "प्रिय मित्र" बताया था.
लेकिन अप्रैल में ट्रम्प ने "लिबरेशन डे" के मौके पर भारत पर टैरिफ लगा दिए, जिससे दोनों पक्षों के बीच व्यापार वार्ता तेज़ हो गई. जबकि उपराष्ट्रपति जेडी वेंस ने अप्रैल में भारत का दौरा किया और व्यापारिक समझौते की संभावनाओं पर बात हुई. हालांकि जैसे-जैसे समय बीता, वार्ताओं में तनाव बढ़ा. चीन और अमेरिका के बीच डील के बाद भारत का रुख और सख्त हो गया. भारत ने स्टील और एल्युमिनियम पर अमेरिकी शुल्क के जवाब में प्रतिशोधात्मक टैरिफ की चेतावनी दी.
इसी दौरान भारत-पाक संघर्षविराम पर ट्रम्प के दावों और यूक्रेन मुद्दे पर पुतिन से बढ़ते टकराव ने रिश्तों को और जटिल बना दिया. जुलाई के मध्य में ट्रम्प ने उन देशों पर सख्त टैरिफ लगाने की धमकी दी जो रूसी तेल खरीदते हैं – और भारत भी उस लपेटे में आ गया.
हालांकि भारत समझौते को लेकर अब भी आशान्वित था और एक प्रस्ताव ट्रम्प को भेजा गया. लेकिन ट्रम्प ने जब अन्य देशों के साथ समझौते घोषित करने शुरू किए और फिर 30 जुलाई को भारत पर 25 प्रतिशत “प्रतिशोधात्मक” टैरिफ लगा दिए, तो संबंधों में और गिरावट आई.
भारतीय अधिकारियों का मानना है कि कई स्तरों पर गलत आकलन हुआ. मिडवेस्ट अमेरिकी सीनेटरों और कृषि लॉबी के प्रभाव को कम करके आंका गया और कोई वैकल्पिक योजना तैयार नहीं थी. ट्रम्प की सख्ती के बाद मोदी ने साफ कहा कि छोटे किसानों के हितों की रक्षा की जाएगी. भारत ने अमेरिकी टैरिफ को “अनुचित और अन्यायपूर्ण” बताया, लेकिन फिलहाल कोई जवाबी कार्रवाई की योजना नहीं बनाई है. कुछ अधिकारी यह भी मान रहे हैं कि कृषि और डेयरी सेक्टर में कुछ रियायतें देकर समझौता किया जा सकता है.
अमेरिका से अपने संबंधों की समीक्षा कर रहा भारत
इस घटनाक्रम के बीच मोदी सरकार अमेरिका की ओर झुकाव की समीक्षा भी कर रही है. शीत युद्ध के दौर में भारत ने सोवियत संघ के साथ रणनीतिक साझेदारी बनाई थी जब अमेरिका पाकिस्तान के साथ था. 1971 के युद्ध से लेकर संयुक्त राष्ट्र तक, रूस ने भारत का साथ दिया है.
मोदी अगस्त के अंत में सात साल बाद चीन जा रहे हैं, जहां वे राष्ट्रपति शी जिनपिंग से क्षेत्रीय सम्मेलन के दौरान मुलाकात करेंगे. चीन के राजदूत शू फेइहोंग ने भारत का समर्थन करते हुए सोशल मीडिया पर लिखा, “दबंग को एक इंच दो, तो वो मील मांगता है.”
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कई जानकारों का मानना है कि ट्रम्प की रणनीति से अमेरिका को तात्कालिक फायदे मिल सकते हैं, लेकिन दीर्घकालिक रूप से भारत को चीन की ओर झुकाना अमेरिका के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है.
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