उत्तराखंड और हिमाचल में महीने भर बाद मनाएंगे दिवाली, बूढ़ी दिवाली के नाम से प्रसिद्ध और अनोखे रीति-रिवाजों के साथ
उत्तराखंड और हिमाचल के कुछ हिमालयी क्षेत्रों में दिवाली को महीनेभर बाद मनाया जाता है, जिसे ‘बूढ़ी दिवाली’ कहा जाता है. यह पर्व बाकी देश के दिवाली उत्सव से अलग होता है और इसमें पटाखे नहीं फोड़े जाते. बूढ़ी दिवाली अपने अनोखे रीति-रिवाज और शांतिपूर्ण जश्न के लिए प्रसिद्ध है.
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पूरे देश में दिवाली की चमक-दमक अभी थम चुकी है, लेकिन हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के कुछ इलाकों में यह जश्न एक महीने बाद फूटेगा. यहां इसे 'बूढ़ी दिवाली' या 'पुरानी दिवाली' कहा जाता है. यह पर्व नवंबर के अंत या दिसंबर की शुरुआत में मनाया जाता है, जो सर्दियों की बर्फीली रातों में अलाव की गर्माहट और पारंपरिक नृत्यों से सजा होता है. पटाखों की बजाय मशालों की रोशनी और लोकगीतों की धुन इसकी खासियत है.
स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, यह श्रीराम की विजय यात्रा और राजा बलि की भक्ति से जुड़ा है. इस साल बूढ़ी दिवाली 30 नवंबर से शुरू होगी, जो चार-पांच दिनों तक चलेगी.
बूढ़ी दिवाली कब और क्यों मनाई जाती है?
बूढ़ी दिवाली दीपावली के ठीक एक महीने बाद आती है. हिमाचल के सिरमौर, शिमला, कुल्लू (निरमंड) और उत्तराखंड के जौनसार बावर, रवांई घाटी (टिहरी, चकराता) जैसे क्षेत्रों में यह पर्व सतयुग की कथाओं से प्रेरित है. मान्यता है कि जब भगवान राम अयोध्या लौट रहे थे, तो हिमालयी इलाकों में बर्फबारी के कारण उनका स्वागत एक महीने देरी से हुआ. इसी वजह से यहां दिवाली की जगह बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है. सर्दियों में भारी बर्फ पड़ने से लोग अलग-थलग पड़ जाते हैं, इसलिए यह पर्व सामूहिक एकता का प्रतीक भी है.
हिमाचल में अनोखे रिवाज
हिमाचल के गिरिपार, निरमंड और चौपाल जैसे इलाकों में बूढ़ी दिवाली चार दिनों तक चलती है. पहले दिन आधी रात को मशालें जलाकर जुलूस निकाला जाता है. लोग पारंपरिक वाद्य यंत्रों जैसे ढोल-नगाड़ों पर नाचते-गाते हैं. हट्टी जनजाति के 3.5 लाख लोग अलाव जलाते हैं और 'परोकड़िया गीत', 'भयूरी' और 'हुड़क नृत्य' करते हैं. अंतिम दिन 'बलि राज दहन' होता है, जहां राजा बलि का प्रतीक जलाया जाता है. पटाखे नहीं फूटते, बल्कि खास पकवान जैसे मिठाइयां और लोक नृत्य पर जोर रहता है. यह पर्व संस्कृति की धरोहर को जीवंत रखता है.
उत्तराखंड की परंपरा
उत्तराखंड के टोंस-यमुना घाटी में बूढ़ी दिवाली पांच दिनों तक धूम मचाती है. जौनसार-बावर और रवांई क्षेत्र में महिलाएं-पुरुष एक-दूसरे के घर जाते हैं, जहां उन्हें विशेष रसोई दी जाती है. युवा गांव घूमते हुए पारंपरिक दीपावली गीत गाते हैं. इगाश (11 दिन बाद) और मंगशीर (एक महीने बाद) में भी छोटी दिवालियां मनाई जाती हैं, जिससे साल में तीन बार यह जश्न होता है. दूर-दूर से लोग गांव लौटते हैं. यहां रस्साकशी, स्वांग और नाटक जैसे खेल भी आयोजित होते हैं, जो खुशी और एकता बढ़ाते हैं.
राम-परशुराम और बलि की कथा
बूढ़ी दिवाली का जिक्र रामायण से जुड़ा है. कहा जाता है कि राम के लौटने में देरी हुई, इसलिए हिमालय में अलग तिथि मनाई गई. कुछ कथाओं में भगवान परशुराम का भी उल्लेख है, जो सतयुग से प्रेरित है. राजा बलि की भक्ति के कारण उनका प्रतीक दहन किया जाता है. यह पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश देता है, लेकिन स्थानीय रंग के साथ. विशेषज्ञ कहते हैं कि यह परंपरा पर्यावरण संरक्षण को भी बढ़ावा देती है, क्योंकि पटाखों का इस्तेमाल नहीं होता.
एकता और खुशी का प्रतीक
बूढ़ी दिवाली सिर्फ त्योहार नहीं, बल्कि पहाड़ी संस्कृति का आईना है. सर्दियों की कठिनाइयों में यह लोगों को जोड़ती है. बुजुर्ग कहानियां सुनाते हैं, तो बच्चे नृत्य सीखते हैं. पर्यटन के लिहाज से भी यह आकर्षण का केंद्र है. इस साल भी हजारों पर्यटक इन इलाकों में पहुंचेंगे. सरकार ने इसे संरक्षित करने के लिए प्रयास शुरू किए हैं, ताकि नई पीढ़ी इन रिवाजों को न भूले. बूढ़ी दिवाली हमें सिखाती है कि खुशियां देर से आएं तो भी रोशनी फैलाती हैं.
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