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मल्टीपोलर वर्ल्ड की मांग तेज, लिबरल ग्लोबल ऑर्डर और वैश्विक ट्रेड पर मंडराए खतरों के बीच 'BRICS' के नेतृत्व की भूमिका में भारत, ट्रंप के खौफ खाने की है ये असली वजह!

ट्रंप की आक्रामक टैरिफ नीति ने वैश्विक व्यापार में तनाव बढ़ाया है, जिससे ब्रिक्स की प्रासंगिकता और भारत की संतुलनकारी भूमिका और अहम हो गई है. भारत अपनी स्वतंत्र विदेश नीति के जरिए ग्लोबल साउथ की आवाज को मजबूत करते हुए मल्टीपोलर विश्व के निर्माण में योगदान दे रहा है. टैरिफ वार और ग्लोबल स्पलाई चेन के प्रभावित होने के बाद ब्रिक्स एक तरह से अमेरिक और डॉलर के प्रभुत्व को चुनौती दे सकता है.

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई थी, तो मंशा यह थी कि दुनिया के तमाम देशों को उनके आकार की परवाह किए बिना राय रखने का अधिकार मिलेगा और सबके वोट की कीमत एक समान होगी. संयुक्त राष्ट्र के अलावा विश्व व्यापार संगठन, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक जैसे संस्थानों की भी स्थापना की गई, ताकि वैश्विक व्यापार को नियंत्रित किया जा सके और विकासशील देशों की मदद की जा सके. युद्ध के दौरान हथियारों की सप्लाई कर अपार धन अर्जित करने वाला अमेरिका दुनिया का चौधरी बन बैठा. शीत युद्ध के दौर में अमेरिका की इस प्रभुता के कारण कई देशों में मल्टीपोलर वर्ल्ड की आवश्यकता महसूस की गई. चाहे संयुक्त राष्ट्र हो या सुरक्षा परिषद, अमेरिका का प्रभाव साफ झलकता है.

हाल के वर्षों में वैश्विक अर्थव्यवस्था और कूटनीति में तेजी से बदलाव देखने को मिले हैं. डोनाल्ड ट्रंप की "मेक अमेरिका ग्रेट अगेन" या "अमेरिका फर्स्ट" नीति और उनके द्वारा शुरू किए गए ट्रेड वार ने वैश्विक सप्लाई चेन, व्यापार और भू-राजनीति में नए तनाव पैदा कर दिए हैं. ट्रंप की एकतरफा टैरिफ नीति ने एक बार फिर बहुध्रुवीय विश्व की आवश्यकता को सामने ला दिया है. इसी बीच, ब्रिक्स (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) जैसे समूह वैश्विक मंच पर अपनी प्रासंगिकता को मजबूत कर रहे हैं. भारत बतौर संस्थापक सदस्य इस बदलते परिदृश्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है.

ट्रंप के टैरिफ का असर वैश्विक व्यापार पर गहरा पड़ा है. उनके दूसरे कार्यकाल में उम्मीद की जा रही थी कि भारत-अमेरिका संबंध और प्रगाढ़ होंगे, लेकिन हुआ इसके उलट. अमेरिका फर्स्ट नीति को और आक्रामक रूप से लागू करने के लिए ट्रंप ने टैरिफ बढ़ाए. भारत पर रूस से कच्चा तेल खरीदने के कारण 25 प्रतिशत अतिरिक्त टैरिफ लगाने की धमकी दी गई, जिससे कुल टैरिफ दर 50 प्रतिशत तक पहुंच सकती है. यह भारत के 87 बिलियन डॉलर के निर्यात पर असर डाल सकता है, खासकर कपड़ा, गहने और चमड़ा जैसे श्रम-प्रधान क्षेत्रों पर, जिससे रोजगार पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है. यही कारण है कि मौजूदा दौर में ब्रिक्स और शंघाई सहयोग संगठन की आवश्यकता और भी अधिक महसूस हो रही है.

ब्रिक्स से क्यों खौफ खाते हैं ट्रंप?

की रणनीति का एक अन्य पहलू ब्रिक्स देशों को कमजोर करना है. उन्होंने ब्रिक्स की कई बार खिल्ली भी उड़ाई. ट्रंप ने बीते दिनों ब्रिक्स का ज़िक्र करते हुए कहा कि "ब्रिक्स नाम का एक छोटा समूह है, जो तेज़ी से समाप्त हो रहा है. इसने डॉलर, डॉलर के प्रभुत्व और मानक पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश की. ब्रिक्स अभी भी यह चाहता है." अमेरिकी राष्ट्रपति ब्रिक्स और ब्रिक्स करेंसी के प्रयास भर से कितना खौफ खाते हैं उसका उदाहरण आपको उनके ब्रिक्स को लेकर दिए बयान से साफ पता चल जाएगा. उनके मुताबिक अगर यह संगठन तेजी से खत्म हो रहा है तो उन्होंने ऐसा क्यों कहा कि ब्रिक्स समूह में चाहे जो भी देश हों हम उनपर 10 फ़ीसदी टैरिफ़ लगाने जा रहे हैं.

उन्होंने इसके बाद ट्रंप ने एक बार फिर डॉलर को मज़बूत करने और उसे वैश्विक मुद्रा बनाए रखने पर ज़ोर दिया. उन्होंने कहा, "हम डॉलर को गिरने नहीं देंगे. अगर हम वैश्विक मुद्रा के तौर पर डॉलर का स्टेटस खो देते हैं तो यह एक विश्व युद्ध हारने जैसा होगा." "जब मैंने ब्रिक्स देशों के इस समूह के बारे में सुना तो मैंने उन पर सख़्ती दिखाई. अगर ये देश कभी भी एकजुट हुए तो यह गुट जल्द ही समाप्त हो जाएगा."

ग्लोबल साउथ का प्रतिनिधित्व करेगा ब्रिक्स

ब्रिक्स की स्थापना 2006 में हुई और 2009 में इसका पहला शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया. शुरुआत में इसमें ब्राजील, रूस, भारत और चीन शामिल थे. 2010 में दक्षिण अफ्रीका के शामिल होने के बाद इसका नाम ब्रिक्स हो गया. 16वें शिखर सम्मेलन में ईरान, यूएई, इथियोपिया और मिस्र भी सदस्य बने, जबकि सऊदी अरब को सदस्यता मिलने के बावजूद उसने आधिकारिक रूप से शामिल होने का निर्णय नहीं लिया है. वर्तमान में यह समूह दुनिया की आबादी का लगभग 43 प्रतिशत और वैश्विक जीडीपी का 30 प्रतिशत हिस्सा है.

मल्टीपोलर वर्ल्ड का प्रतिनिधित्व कर सकता है ब्रिक्स

ब्रिक्स की प्रासंगिकता लगातार बढ़ रही है. अब यह वैश्विक अर्थव्यवस्था का लगभग 40 प्रतिशत प्रतिनिधित्व करता है. नए सदस्यों के जुड़ने से इसकी ताकत और बढ़ गई है. ब्रिक्स का मकसद एक समावेशी, नियम-आधारित और गैर-भेदभावपूर्ण बहुपक्षीय व्यापार प्रणाली को बढ़ावा देना है. अमेरिकी डॉलर की वैश्विक प्रभुता को चुनौती देने की कोशिशों में इसका असर स्पष्ट रूप से दिखता है. हाल के रियो डी जनेरियो शिखर सम्मेलन में ब्रिक्स ने एकतरफा टैरिफ और प्रतिबंधों की निंदा की, जिसे ट्रंप की नीतियों के खिलाफ एक संदेश माना गया.

भारत इस पूरे परिदृश्य में रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है. एक ओर भारत अमेरिका के साथ क्वाड, I2U2 और रक्षा सहयोग के जरिए साझेदारी मजबूत कर रहा है, वहीं दूसरी ओर ब्रिक्स के जरिए ग्लोबल साउथ के हितों को आगे बढ़ा रहा है. रूस से कच्चा तेल खरीदने पर अमेरिका की नाराजगी के बावजूद भारत ने इसे अपनी ऊर्जा सुरक्षा का हिस्सा बताया और स्वतंत्र विदेश नीति को बरकरार रखा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में आर्थिक सहयोग, वैश्विक शासन सुधार और आतंकवाद के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया, जिसे अमेरिका के लिए अप्रत्यक्ष संदेश माना गया.

भारत की यह रणनीति उसे ब्रिक्स में संतुलनकारी शक्ति बनाती है. जहां रूस और चीन पश्चिम विरोधी रुख अपनाते हैं, वहीं भारत तटस्थता और समावेशिता पर जोर देता है. इससे न केवल ब्रिक्स के भीतर एकता बनाए रखने में मदद मिलती है, बल्कि भारत वैश्विक दक्षिण की आवाज को भी मजबूत करता है.

मल्टीपोलर विश्व के निर्माण में भारत का योगदान कई स्तरों पर देखा जा सकता है. आर्थिक स्तर पर भारत वैश्विक व्यापार में संतुलन स्थापित करने की दिशा में काम कर रहा है और एकतरफा टैरिफ का विरोध करता है. कूटनीतिक स्तर पर भारत अमेरिका, रूस और चीन जैसे शक्ति केंद्रों के बीच संतुलन बनाने में सक्षम है. साथ ही यह ब्रिक्स, क्वाड और जी20 जैसे मंचों पर सक्रिय भूमिका निभाता है. वैश्विक दक्षिण की आवाज को मजबूत करने के लिए भारत ने ब्रिक्स का उपयोग किया है और वैकल्पिक वित्तीय व्यवस्था की चर्चा में एक रचनात्मक भूमिका निभाई है.

'चुनौतियों से पार पाना ब्रिक्स की सबसे बड़ी चुनौती'

फिर भी ब्रिक्स की सीमाएं भी स्पष्ट हैं. इसे आलोचना झेलनी पड़ी है कि यह केवल सांकेतिक सहयोग तक सीमित है और ठोस नतीजे नहीं दे पा रहा है. न्यू डेवलपमेंट बैंक और ब्रिक्स आकस्मिक रिजर्व व्यवस्था जैसे संस्थानों की स्थापना के बावजूद स्थानीय मुद्रा में ऋण देने की प्रगति सीमित रही है. नियामक ढांचे की कमी और द्विपक्षीय तनाव इसके कामकाज पर असर डाल सकते हैं. इसके बावजूद ब्रिक्स का उद्देश्य मौजूदा संस्थाओं की जगह लेना नहीं बल्कि उभरती अर्थव्यवस्थाओं को एक जवाबी मंच देना रहा है.

आगे का रास्ता ब्रिक्स को एक राजनीतिक गठबंधन की जगह आर्थिक सहयोग के मंच के रूप में देखने से बन सकता है. सतत विकास, जलवायु और समावेशी विकास जैसे क्षेत्रों में बहुपक्षीय सहमति बनाना संभव है. वैश्विक वित्तीय अस्थिरता की आशंकाओं के बीच ब्रिक्स, अपनी चुनौतियों के बावजूद, ग्लोबल साउथ के लिए एक कामकाजी बहुपक्षीय वित्तीय संस्थान की स्थापना के सबसे करीब खड़ा दिखाई देता है.

ट्रंप के कारण फिर से खड़ा हुआ ब्रिक्स

इस तरह ट्रंप के टैरिफ और आक्रामक नीतियों ने जहां वैश्विक तनाव बढ़ाया है, वहीं ब्रिक्स की प्रासंगिकता को भी मजबूत किया है. भारत अपनी स्वतंत्र विदेश नीति और रणनीतिक संतुलन के साथ इस बदलते दौर में एक प्रमुख भूमिका निभा रहा है. यह न केवल ग्लोबल साउथ की आवाज को मजबूत कर रहा है, बल्कि एक बहुध्रुवीय विश्व के निर्माण में भी योगदान दे रहा है.

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