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तो क्या फेल हो गई सऊदी अरब-Pak की डिफेंस डील? अफगानिस्तान से जंग में क्यों नहीं होगी सीधी एंट्री, जानें

अफगानिस्तान-पाकिस्तान की लड़ाई ने अरब देशों को टेंशन में डाल दिया है. खासकर ऐसे समय में जब सऊदी ने कुछ दिनों पहले ही पाकिस्तान के साथ डिफेंस डील की है.

पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच तनाव चरम पर पहुंच गया है. अफगानिस्तान सैनिकों ने 11 अक्टूबर की देर रात कई पाकिस्तानी बॉर्डर पोस्ट पर गोलाबारी की. ये तालिबान का पाकिस्तान को जवाब माना जा रहा है क्योंकि 9 अक्टूबर को पाकिस्तान ने काबुल में हवाई हमला किया था. जिसमें पाक सैनिकों ने TTP के ठिकानों को टारगेट किया था. 

रिपोर्ट्स के मुताबिक, अफगानिस्तान के इस हमले में कई पाकिस्तानी चौकियां तबाह हो गईं. जबकि 3 चौकियों पर कब्जे का दावा किया जा रहा है. वहीं, 12 पाकिस्तानी सैनिकों को मारे जाने की भी खबर है. जानकारी के मुताबिक ये हमला डूरंड लाइन के पार कुनार और हेलमंद जैसे प्रांतों में हुआ. दोनों मुस्लिम देशों की इस तगड़ी लड़ाई ने अरब देशों को टेंशन में डाल दिया है. खासकर ऐसे समय में जब सऊदी ने कुछ दिनों पहले ही पाकिस्तान के साथ डिफेंस डील की है. 

क्या अफगानिस्तान-पाकिस्तान की जंग में सऊदी अरब की होगी एंट्री? 

सवाल उठ रहे हैं कि पाकिस्तान-अफगानिस्तान के बीच जंग नहीं थमी तो क्या सऊदी अरब की एंट्री हो सकती है? क्योंकि सऊदी अरब और पाकिस्तान के बीच जो रक्षा समझौता हुआ था उसके तहत दोनों देश युद्ध के समय एक दूसरे की रक्षा करेंगे. यानी किसी एक देश पर हमला होगा तो वह दूसरे देश पर खुद बखुद हमला माना जाएगा. ऐसे में सऊदी के लिए पाकिस्तान-अफगानिस्तान की ये जंग किसी लिटमस टेस्ट से कम नही है. 

हाल ही के घटनाक्रम को देखें तो सऊदी अरब क्षेत्रीय मध्यस्थ के रूप में स्थापित करने में भरोसा रखता है. यानी सीधे तौर पर दो देशों के युद्ध में कूदना सऊदी का मकसद नहीं होता. क्योंकि ये अरब देश जंग में नहीं बल्कि क्षेत्रीय स्थिरता पर फोकस करता है. साथ-साथ सऊदी अरब इस नीति पर भी चलता है कि दो अन्य देशों की जंग का उस पर असर न हो. हालांकि सऊदी अरब मध्यस्था से नहीं कतराता. ऐसे में पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच तनाव में सऊदी अरब की मध्यस्था से इंकार नहीं किया जा सकता है. 

सऊदी अरब की विदेश नीति क्या है? 

सऊदी अरब की विदेश नीति 'शून्य समस्या' की रही है. इसके तहत यह देश विजन-2030 के आर्थिक लक्ष्यों पर काम कर रहा है. ताकि तेल के अलावा अर्थव्यवस्था के अन्य सेक्टर को भी विस्तारित किया जा सके जहां निवेश की अपार संभावनाएं बनें. इसीलिए वह सीधे तौर पर किसी भी देश के तनाव में हस्तक्षेप नहीं करता है. सऊदी अरब देश के डेवलपमेंट के लिए ज्यादा से ज्यादा देशों को अवसर देने की कोशिश में जुटा है. यहां तक कि ईरान के साथ भी सऊदी अरब के रिश्ते बेहतरी की ओर बढ़ रहे हैं. 

हालांकि पाकिस्तान और अफगानिस्तान के केस में सऊदी अरब का स्टैंड पाकिस्तान के साथ ज्यादा रहने की ज्यादा संभावना है. क्योंकि अफगानिस्तान में तालिबान सरकार को सऊदी अरब ने अभी तक पूरी तरह मान्यता नहीं दी है, लेकिन सऊदी सीधे तौर पर इस जंग में एंट्री लेने की बजाय मध्य मार्ग चुनेगा. 

अफगानिस्तान-पाक की जंग में सीधी एंट्री न करने की ये है संभावनाएं 

सऊदी अरब की चिंता पाकिस्तान औैर अफगानिस्तान के बीच मसलों से कहीं अलग है. अव्वल तो इस जंग का असर सऊदी अरब पर नहीं पड़ेगा. दूसरा तहरीक ए तालिबान से सऊदी अरब को कोई खतरा नहीं है. जबकि पाकिस्तानी सेना का टारगेट ही TTP है. इसकी एक वजह दोनों देशों से सऊदी अरब की भौगौलिक दूरी भी है. 

वहीं, सऊदी अरब इस जंग में डायरेक्ट कूदकर खुद की इकोनॉमी और उद्योग क्षेत्र को प्रभावित नहीं करना चाहेगा. ऐसा करना सऊदी के विजन 30 के मिशन को बाधित कर सकता है. साथ ही इससे सऊदी अरब का टूरिज्म और विदेशी निवेश भी प्रभावित होगा. 

यमन में सऊदी अरब की एंट्री पड़ी थी भारी 

किसी भी देश की जंग में सीधी एंट्री नहीं करने का सबक सऊदी अरब को यमन से मिल चुका है. साल 2015 में यमन में सऊदी का हस्तक्षेप लंबा और महंगा साबित हुआ. जिसका नतीजा ये रहा कि सऊदी अरब मे यमन से अपने सैनिक वापस बुला लिए. सीरिया में भी सऊदी ने कुछ ऐसा ही किया. सऊदी अरब का किसी भी संघर्ष में शामिल होना उसका ईरान के साथ नाजुक संबंधों को भी बिगाड़ सकता है. 

तो क्या पाकिस्तान के रक्षा समझौते का उल्लंघन करेगा सऊदी अरब? 

दरअसल, 17 सितंबर 2025 को सऊदी अरब और पाकिस्तान ने एक रणनीतिक पारस्परिक रक्षा समझौते (SMDA) पर हस्ताक्षर किए थे.  इस समझौते के तहत, अगर दोनों में से किसी भी देश पर हमला होता है तो उसे दूसरा देश इस हमले को खुद पर हमला मानेगा. पाकिस्तान के लिए जहां इसे गेमचेंजर समझौता माना जा रहा है वहीं, सऊदी अरब के लिए इसे अपनी सुरक्षा मजबूत करने वाला फैसला माना गया. क्योंकि, समझौते के अनुसार दोनों देशों की थल, वायु और नौ सेनाएं अब और ज्यादा सहयोग और खुफ़िया जानकारियां साझा करेंगी. इसकी एक वजह पाकिस्तान का परमाणु संपन्न होना भी है. जिसे सऊदी अरब अपना रक्षा कवच बनाना चाहता है. 

हालांकि डिफेंस एक्सपर्ट का मानना है कि ये समझौता सशर्त हुआ था. यह महज राजनीतिक एकजुटता और रणनीतिक तौर पर सहयोग के लिए उठाया गया कदम था. जबकि अफगानिस्तान-पाकिस्तान का तनाव आपसी सीमा विवाद और आतंकवाद से जुड़ा हुआ है. अफगानिस्तान के साथ पाक के तनाव की मेन वजह TTP के आतंकी हैं. 

तो फिर क्या करेगा सऊदी अरब? 

सऊदी अरब पहले ही दोनों देशों से संयम बरतने की अपील कर चुका है. अगर फिर भी लड़ाई जारी रहती है तो सऊदी सीधे तौर पर एंट्री न लेकर अन्य मोर्चों पर पाकिस्तान का साथ देगा. जैसे आर्थिक और राजयनिक मदद, पाकिस्तान को बातचीत का मंच, आर्थिक बहाली पैकेज और तनाव बढ़ने से पहले ही स्थिति को संभाल लेना. 

इसके बावजूद अफगानिस्तान-पाकिस्तान के बीच हालात बिगड़े तो सऊदी अरब पाकिस्तान को रक्षा टूल्स और वित्तीय मदद दे सकता है. इसके साथ-साथ वह खुफिया जानकारी में भी पाकिस्तान की मदद कर सकता है. अभी तक तो सऊदी अरब ने दोनों के तनाव में केवल अपील ही की है. ऐसे में पाकिस्तान को उसका रक्षात्मक साथ कितना मिलेगा इस पर संशय बरकरार है. हालांकि अच्छी बात ये है कि इससे सऊदी का भारत-पाक संघर्ष पर क्या स्टैंड होगा. ये लगभग-लगभग क्लियर हो गया है. क्योंकि जब अफगानिस्तान-पाक के साथ तनाव में सऊदी ने अभी तक डिफेंस डील के तहत सीधे तौर पर साथ के कोई संकेत नहीं दिए हैं. 

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