जल रहे नेपाल पर अमेरिका से लेकर रूस तक की नजर… पर ओली के खास जिनपिंग ने क्यों साधी चुप? जानिए असली वजह
बीजिंग दौरे के महज़ दस दिन बाद ही नेपाली प्रधानमंत्री केपी ओली को पद से इस्तीफा देना पड़ा. ऐसे में नेपाल के ताज़ा राजनीतिक संकट ने चीन की चिंताएं बढ़ा दी हैं, क्योंकि BRI परियोजना समेत कई अहम हित दांव पर लगे हैं. अब सवाल यह है कि नेपाल का नया नेतृत्व राष्ट्रपति शी जिनपिंग को वही प्राथमिकता देगा, जो ओली ने दी थी, या फिर द्विपक्षीय संबंधों में तनाव की स्थिति पैदा हो सकती है?
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भारत का पड़ोसी देश नेपाल पिछले तीन दिनों से आंदोलन की आग में झुलस रहा है. सोशल मीडिया बैन, भ्रष्टाचार और नेपा किड्स के खिलाफ सोमवार से शुरू हुआ जेन-ज़ी का विरोध अब राष्ट्रीय आंदोलन का रूप ले चुका है. बढ़ते जनदबाव के चलते प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली को इस्तीफा देना पड़ा है और सड़कों पर अराजकता का माहौल है. प्रदर्शनकारियों ने काठमांडू के बड़े हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया है, जबकि हिंसा और आगजनी को नियंत्रित करने के लिए सेना ने पूरे देश में कर्फ्यू लागू कर दिया है. नेपाल में उभरे इस नागरिक विद्रोह से भारत समेत तमाम पड़ोसी देश गहरी चिंता में हैं, वहीं चीन की चुप्पी कई सवाल खड़े कर रही है.
चीन से लौटते ही दस दिन के अंदर ओली का इस्तीफा
चीन को नेपाल का सबसे बड़ा रणनीतिक साझेदार माना जाता है और ओली के कार्यकाल में दोनों देशों के रिश्ते और प्रगाढ़ हुए. बीते साल जब केपी ओली चौथी बार प्रधानमंत्री बने, तो उन्होंने परंपरा तोड़ते हुए भारत की बजाय अपनी पहली विदेश यात्रा चीन की की थी. हाल ही में उन्होंने तियानजिन में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (SCO) शिखर सम्मेलन और उसके बाद चीन की विक्ट्री परेड में भाग लेने के लिए बीजिंग का दौरा किया. इस दौरान राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ उनकी नजदीकियां साफ़ झलक रही थीं. लेकिन इस ऐतिहासिक दौरे को दस दिन भी नहीं बीते थे कि ओली को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा.
लगातार अंडरग्राउंड बताए जा रहे हैं ओली- रिपोर्ट
चीन की सरकारी समाचार एजेंसी शिन्हुआ ने नेपाल में भड़की हिंसा और प्रधानमंत्री ओली के इस्तीफे पर टिप्पणी करते हुए लिखा है कि “ओली, बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के बाद दक्षिण एशिया के ऐसे दूसरे नेता हैं, जिन्होंने चीन दौरे के तुरंत बाद देश में हिंसा भड़कने पर पद छोड़ दिया. शेख हसीना को पिछले साल 5 अगस्त को छात्रों के सरकार विरोधी प्रदर्शनों के बाद देश छोड़कर भारत भागना पड़ा था. उसी तरह ओली को भी बीजिंग दौरे के कुछ ही दिनों बाद प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा है.”
रिपोर्ट में यह भी अटकलें जताई जा रही हैं कि ओली देश छोड़कर दुबई भाग सकते हैं, क्योंकि इस्तीफे के बाद से वह सार्वजनिक रूप से नज़र नहीं आए हैं और लगातार अंडरग्राउंड बताए जा रहे हैं.
चीन की चरणवंदना करने लगे थे ओली!
काठमांडू पोस्ट ने अपने हालिया संपादकीय में लिखा कि ओली ने भारत और पश्चिमी देशों से दूरी बनाकर नेपाल को चीन का करीबी साझेदार बना दिया. लेख के अनुसार, रणनीतिक स्वायत्तता की नीति पर जोर देने के बावजूद ओली ने नेपाल को स्पष्ट रूप से बीजिंग के पाले में खड़ा कर दिया, जिसका असर नेपाल की विदेश नीति और उनके अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर लंबे समय तक दिखाई देगा.
लेकिन अब जबकि ओली प्रधानमंत्री नहीं हैं, सत्ता परिवर्तन को लेकर चीन की चिंता साफ झलक रही है. नेपाल की यह राजनीतिक अस्थिरता न केवल चीन के लिए चुनौती है, बल्कि द्विपक्षीय रिश्तों पर भी इसका गहरा असर पड़ सकता है.
नेपाल का करीबी है चीन फिर भी जिनपिंग है चुप
ओली सरकार चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के ड्रीम प्रोजेक्ट बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) को सक्रिय रूप से बढ़ावा दे रही थी. पिछले साल दिसंबर में चीन यात्रा के दौरान ओली ने बीआरआई से जुड़ी ड्राफ्ट डील पर हस्ताक्षर किए थे. उस समय उन्होंने कहा था कि “राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ हुई बेहद अहम बैठक से मैं सम्मानित महसूस कर रहा हूं. बेल्ट एंड रोड सहयोग समझौता नेपाल और चीन के बीच आर्थिक साझेदारी को और मजबूत करेगा.”
जिनपिंग के इतने करीबी माने जाने के बावजूद नेपाल में भड़के विद्रोह पर चीन की ओर से अब तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है, जबकि भारत, अमेरिका और अन्य पश्चिमी देश इस हिंसा को लेकर अपनी प्रतिक्रियाएं सार्वजनिक कर चुके हैं.
नुकसान का अंदाजा लगाने की कोशिश कर रहा चीन
चीन की चुप्पी उसकी बेचैनी को साफ बया कर रही है, क्योंकि नेपाल का मौजूदा जनआंदोलन बीजिंग के प्रभाव को सीधी चुनौती दे रहा है. नेपाल में BRI के तहत सड़क, रेल और बंदरगाह जैसे कई प्रोजेक्ट्स चल रहे हैं, जिन्हें भारत को घेरने की चीनी रणनीति का अहम हिस्सा माना जाता है. लेकिन यह आंदोलन नेपाल की चीन पर अत्यधिक निर्भरता के खिलाफ भी है. प्रदर्शनकारी खुले तौर पर ओली की विदेश नीति की आलोचना कर रहे हैं, जिसमें वे पूरी तरह बीजिंग के करीब चले गए थे.
अब चीन संभावित नुकसान का आकलन कर रहा है. यदि नई सरकार भारत या अमेरिका की ओर झुकाव दिखाती है, तो नेपाल में चल रहे BRI प्रोजेक्ट्स को बड़ा झटका लग सकता है.
नेपाल को साधने में जुटे अमेरिका-चीन
नेपाल इस समय चीन और अमेरिका के बीच फंसता नज़र आ रहा है और दोनों महाशक्तियों के बीच संतुलन साधने की कोशिश कर रहा है. अमेरिका, इंडो-पैसिफिक रणनीति के तहत नेपाल में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है, ताकि बीजिंग का दबदबा कम हो. इसी उद्देश्य से वह MCC प्रोजेक्ट के ज़रिए बिजली और सड़क अवसंरचना पर फोकस कर रहा है, जिसे सीधे तौर पर चीन के BRI के विकल्प और चुनौती के रूप में देखा जा रहा है.
नेपाल में बढ़ता अमेरिकी दखल
ट्रंप प्रशासन ने हाल ही में मिलेनियम चैलेंज कॉर्पोरेशन (MCC) प्रोजेक्ट को दोबारा शुरू किया है, जिसके तहत नेपाल को 500 मिलियन डॉलर की सहायता दी जा रही है. जुलाई 2025 में लिए गए इस फैसले को चीन के लिए एक बड़ा झटका माना जा रहा है. चीन के विरोध के बावजूद नेपाल ने अमेरिकी सहायता स्वीकार कर ली है. इस प्रोजेक्ट के तहत नेपाल ऊर्जा और परिवहन क्षेत्र को अमेरिकी सहयोग से मज़बूत करेगा.
चीन की आपत्ति का कारण यह है कि उसकी नज़र में MCC केवल आर्थिक सहयोग नहीं, बल्कि अमेरिका की रणनीतिक चाल है. बीजिंग का मानना है कि इस प्रोजेक्ट के ज़रिए अमेरिका नेपाल में अपनी सैन्य मौजूदगी बढ़ा सकता है और तिब्बत के रास्ते चीन को अस्थिर करने की कोशिश कर सकता है.
नेपाल के हालात पर रूस की नजर
रूस भी नेपाल के हालात पर क़रीबी नज़र रखे हुए है. काठमांडू स्थित रूसी दूतावास ने मंगलवार को अपने नागरिकों को बड़े पैमाने पर जारी सरकार विरोधी प्रदर्शनों के मद्देनज़र सतर्क रहने की सलाह दी. इसी बीच रूसी पर्यटन विभाग ने जानकारी दी कि नेपाल में लगभग 200 रूसी पर्यटक मौजूद हैं. दूतावास ने उन्हें सलाह दी है कि वे पहाड़ी इलाक़ों में ही रहें और हिंसा के केंद्र बने काठमांडू की यात्रा से परहेज़ करें.
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