Advertisement

विरासत का जाल, कोर वोटबैंक और भरोसे के संकट में घिरे तेजस्वी; जानें चुनाव में ‘लालू के लाल’ की ताकत कैसे बन गई सबसे बड़ी रुकावट

बिहार चुनाव में मिली करारी हार ने तेजस्वी यादव की राजनीतिक जमीन और भविष्य दोनों को झटका दिया है. पार्टी में मतभेद, परिवार में बढ़ती खींचतान और रोहिणी आचार्य के आरोपों ने उनकी मुश्किलें बढ़ा दी हैं. नई पीढ़ी के नेताओं की भीड़ में तेजस्वी सबसे बड़े वोटबैंक के बावजूद युवाओं को जोड़ने में कमजोर दिखे. पुरानी जातीय विरासत और नई राजनीति के बीच उनका संतुलन बिगड़ता गया.

Lalu Yadav/Tejashwi Yadav (File Photo)

बिहार चुनाव में आरजेडी को मिली करारी शिकस्त ने सिर्फ तेजस्वी यादव की राजनीतिक जमीन ही नहीं हिलाई, बल्कि उनके भविष्य की राह भी मुश्किल कर दी है. नतीजे साफ होने के बाद पार्टी के अंदर उठ रही आवाज़ें और परिवार में बढ़ती खींचतान ने तेजस्वी की चुनौती को कई गुना बढ़ा दिया है. तेजस्वी की बहन रोहिणी आचार्य लगातार उनके करीबी नेताओं पर खुलकर निशाना साध रही हैं, जिससे परिवार और पार्टी दोनों में असहमति की लकीरें गहराती जा रही हैं. दूसरी ओर, आरजेडी के पारंपरिक वोटर को बचाए रखना और नए चेहरे के तौर पर अपनी स्वीकार्यता बढ़ाना, तेजस्वी के सामने सबसे बड़ा राजनीतिक इम्तिहान बन गया है.

दरअसल, बिहार की नई राजनीतिक पीढ़ी में तेजस्वी यादव, कन्हैया कुमार, चिराग पासवान, प्रशांत किशोर और सम्राट चौधरी जैसे युवा नेता तेजी से उभर रहे हैं. इनमें तेजस्वी सबसे कम उम्र (36 वर्ष) के हैं और अपने पिता लालू प्रसाद यादव की विरासत के कारण सबसे बड़े वोटबैंक पर पकड़ रखते हैं. लालू फैक्टर की वजह से तेजस्वी लगभग एक-तिहाई वोटों को प्रभावित कर सकते हैं, जो उन्हें युवा नेतृत्व की दौड़ में सबसे आगे रखता है. इसके बावजूद, बिहार की 58 फीसदी आबादी जो 25 वर्ष से कम उम्र की है (जनगणना प्रक्षेपण 2021), उससे जुड़ने का बड़ा मौका तेजस्वी पूरी तरह भुना नहीं पाए. राजनीति में युवाओं का भरोसा जीतने के लिए नया नेतृत्व नई सोच, नए संदेश और पुरानी छवि से दूर एक ताज़ा पहचान पेश करता है और तेजस्वी की सबसे बड़ी चुनौती यहीं खड़ी होती है. चुनाव नतीजों ने यह साफ कर दिया है कि तेजस्वी को अब न केवल पार्टी को एकजुट रखना है, बल्कि अपनी राजनीतिक दिशा और रणनीति पर भी पुनर्विचार करना होगा. आने वाले दिनों में उनका हर कदम बिहार की राजनीति और उनकी खुद की पहचान को नए सिरे से निर्धारित करेगा.

तेजस्वी के सामने बड़ी चुनौती 

तेजस्वी यादव आज दो तरह की राजनीति के चौराहे पर खड़े दिखाई देते हैं. एक तरफ़ पिता की मजबूत जातीय विरासत, दूसरी ओर नई पीढ़ी को साथ लाने का सपना. वे जहां अपने पारंपरिक यादव वोटबैंक को बनाए रखने की कोशिश करते हैं, वहीं युवाओं के बीच खुद को बदलाव के प्रतीक के रूप में पेश करना चाहते हैं. लेकिन यही दोहरी रणनीति अक्सर एक-दूसरे को काटती हुई दिखती है. लालू प्रसाद यादव की जमीनी पकड़ तेजस्वी को ठोस आधार जरूर देती है, पर वही जातीय पहचान उनके लिए व्यापक युवा समर्थन हासिल करने में बड़ी चुनौती भी बन जाती है.

विरासत के जाल में फंसे तेजस्वी 

विधानसभा चुनाव ने तेजस्वी यादव को ‘विरासत के जाल’ में फंसे नेता के रूप में और स्पष्ट कर दिया. इस चुनाव में उन्होंने पिता लालू प्रसाद की पारंपरिक छवि से दूरी बनाने के कई प्रयास किए. उन्होंने प्रचार में लालू की भूमिका लगभग सीमित रखी, विकास और नौकरियों के बड़े वादों को केंद्र में लाया और गठबंधन के नेता के तौर पर खुद को स्थापित करने के लिए कांग्रेस पर भी दबाव बनाया. चुनावी रैलियों में तेजस्वी ने संयमित भाषा और संतुलित बयानबाज़ी के ज़रिए अपनी नई पहचान गढ़ने की कोशिश की. लेकिन दूसरी तरफ़, आरजेडी द्वारा करीब 40 प्रतिशत टिकट यादव उम्मीदवारों को देने से यह संकेत गया कि पार्टी की राजनीति अब भी वही पुरानी जातीय धुरी पर टिक़ी हुई है. नतीजा यह हुआ कि चुनाव के दौरान कोर वोटर 90 के दशक की यादों को फिर से सामने ले आए, जिससे तेजस्वी की बदली हुई छवि पृष्ठभूमि में चली गई. वहीं, तटस्थ और नए मतदाता एनडीए की ओर खिसकते नजर आए.

तेजस्वी के हाथ से कैसे फिसला बड़ा मौका 

साल 2020 का विधानसभा चुनाव तेजस्वी यादव के राजनीतिक करियर का सबसे सुनहरा मौका साबित हो सकता था, लेकिन आख़िरी चरणों में तस्वीर बदल गई. कोविड-19 महामारी, प्रवासी मजदूरों का संकट और एनडीए के भीतर चिराग पासवान की खुली बगावत ने उस समय तेजस्वी के लिए बड़ी राजनीतिक जमीन तैयार की. उन्होंने खुद को एक नए, जिम्मेदार और बदलाव चाहने वाले नेता के रूप में पेश किया. लालू प्रसाद की विवादित छवि से दूरी बनाई और युवा वोटरों को सरकारी नौकरियों के वादे के ज़रिए मजबूती से जोड़ा. तेजस्वी की इन कोशिशों का परिणाम भी दिखा पहले चरण तक तेजस्वी की रैलियों में भारी भीड़ उमड़ने लगी थी और माहौल उनके पक्ष में जाता दिख रहा था. लेकिन जैसे ही आरजेडी की बढ़त के संकेत मिलने लगे, बिहार के एक बड़े तबके में वही पुराना जातीय डर फिर जाग उठा. नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी ने अपने भाषणों में 1990 के दशक के ‘जंगल राज’ को मुख्य मुद्दा बना दिया. वे दौर जब सुरक्षा को लेकर गंभरी आशंकाएं थीं, लड़कियां शाम ढलते ही घरों में सिमट जाती थीं और लोग बाहर निकलने से कतराते थे.

बताते चलें कि बिहार के मतदाताओं ने 2020 में बदलाव की इच्छा तो जताई, लेकिन उस बदलाव के साथ भरोसा भी उतना ही महत्वपूर्ण था. तेजस्वी यादव सत्ता के विकल्प के रूप में मजबूत उभरे लेकिन बड़े पैमाने पर विश्वास हासिल करने में पिछड़ गए और इसकी जड़ें उनकी विरासत से जुड़ी छवि में ही छिपी थीं. अब तेजस्वी के सामने सबसे अहम सवाल यही है कि क्या वे ‘विरासत के जाल’ से खुद को मुक्त कर पाएंगे. यह चुनौती दोहरी है. एक ओर अपने कोर यादव वोटरों को संयमित रखना और दूसरी ओर अन्य समुदायों में भरोसा पैदा करना, वह भी अपने आधार को नाराज किए बिना. अगर यह नाजुक संतुलन नहीं साधा गया, तो परिवारिक मतभेद, भ्रष्टाचार से जुड़े पुराने आरोप और नेतृत्व पर उठ रहे सवाल आने वाले समय में उनके राजनीतिक सफर पर भारी पड़ सकते हैं.

Advertisement

यह भी पढ़ें

Advertisement

LIVE
अधिक →