'अमेरिका पर भरोसा ना करे भारत...', अमेरिकी दिग्गज इकोनोमिस्ट ने बताई स्वार्थी ट्रंप की फितरत, कहा- रूस-यूक्रेन युद्ध भी US ने ही भड़काया
अमेरिकी अर्थशास्त्री जैफरी सैक्स ने मौजूदा टैरिफ विवाद पर चेतावनी देते हुए कहा कि अमेरिका पर भरोसा करना भारत के लिए एक भ्रम है. प्रोफेसर ने अमेरिका और ट्रंप के बयानों और नीतियों यानी कि कथनी और करनी में विरोधाभास पर भी खुलकर बात की. जब उनसे सवाल किया गया कि एक तरफ़ वे पुतिन के साथ मेलजोल की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर वो भारत को रूस से तेल और रक्षा उपकरण खरीदने के लिए आंख दिखाते हैं-धमकाते हैं, तो इस पर प्रोफेसर ने कहा कि ट्रंप के लिए भारत के व्यापारिक या भू-राजनीतिक हित कोई प्राथमिकता नहीं हैं.
Follow Us:
भारत और अमेरिका में इन दिनों टैरिफ का मुद्दा काफी गरमाया हुआ है. ट्रंप द्वारा भारत पर 25% + 25%, कुल 50% टैरिफ लगाने के बाद भारत में यूएस के साथ अपने संबंधों की समीक्षा शुरू हो गई है. देश के लोगों को भारत के संघर्ष के दिन याद आ गए जब अदद गेहूं के लिए उसे ताने सुनने पड़ते थे, उसकी बांह मरोड़ने की कोशिश होती थी. वहीं 1971 युद्ध में कैसे अमेरिका ने पाकिस्तान का साथ देना बेहतर समझा और अपना सांतवां जंगी बेड़ा हिन्द महासागर में भारत के खिलाफ रवाना कर दिया. इसी बीच अमेरिकी अर्थशास्त्री जैफरी सैक्स (Jeffrey Sachs) ने भारतवासियों को सलाह दी है और कहा है कि "Don't Trus America" (अमेरिका पर भरोसा मत करें)
'अमेरिका पर कतई भरोसा न करे भारत'
प्रोफेसर Sachs ने हिंदुस्तान टाइम्स के साथ बातचीत में कहा कि मैंने अपने भारत दौरे के दौरान यह चेतावनी दी थी कि अमेरिका पर भरोसा करना भारत के लिए एक भ्रम है. प्रोफेसर ने अमेरिका और ट्रंप के बयानों और नीतियों यानी कि कथनी और करनी में विरोधाभास पर भी खुलकर बात की. जब उनसे सवाल किया गया कि एक तरफ़ वे पुतिन के साथ मेलजोल की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर वो भारत को रूस से तेल और रक्षा उपकरण खरीदने के लिए आंख दिखाते हैं-धमकाते हैं, तो इस पर प्रोफेसर ने कहा कि ट्रंप के लिए भारत के व्यापारिक या भू-राजनीतिक हित कोई प्राथमिकता नहीं हैं.
भारत से पर्मानेंट साझेदारी में नहीं कोई अमेरिका की रुचि
Sachs ने कहा कि अमेरिका की रुचि भारत के साथ स्थायी साझेदारी में नहीं है, न ही भारत को चीन पर निर्भरता कम करने के विकल्प के रूप में वह गंभीरता से देखता है. ट्रंप दीर्घकालिक रणनीति (लॉन्ग टर्म स्ट्रैटेजी) बनाने में अक्षम हैं. वे केवल अल्पकालिक फ़ायदे और आंतरिक राजनीति को ध्यान में रखते हैं. इसलिए भारत को चाहिए कि वह अमेरिका के साथ व्यापारिक रिश्ते बनाए जरूर, लेकिन उस पर भरोसा न करे. उन्होंने भारत में कुछ लोगों की वो सोच कि अमेरिका, भारत का रणनीतिक साझेदार है, लेकिन वही ट्रंप भारत पर भारी टैरिफ भी लगाते हैं, को भी दूर कर दिया कि अमेरिका भारत का कतई दोस्त नहीं है.
'अमेरिका को नहीं भारत की कोई परवाह-ये भ्रम है'
प्रोफेसर ने इसी बातचीत में भारत को सलाह दी कि आंख मूंदकर अमेरिका पर भरोसा मत कीजिए. इसका मतलब ये कतई नहीं है कि उससे संबंध तोड़ दीजिए बल्कि अपने रिलेशन को डायवर्सिफाई कीजिए. हालांकि उन्होंने अमेरिकी नेताओं की आलोचना करते हुए साफ कहा कि अमेरिका के राजनेता भारत की परवाह नहीं करते और ट्रंप में कोई दीर्घकालिक रणनीतिक सोच नहीं है. अमेरिका, खासकर ट्रंप के तहत, स्वार्थी, संरक्षणवादी (Protectionist) और केवल अल्पकालिक हितों से प्रेरित है. अतः भारत को चाहिए कि वह: खुद को एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में स्थापित करे और अमेरिका और चीन दोनों के साथ संतुलित संबंध बनाए. उन्होंने हिंदुस्तान को सलाह देते हुए कहा कि बहुध्रुवीय यानी की मल्टीपोलर वर्ल्ड का समर्थन करे जिसमें भारत की स्वतंत्र भूमिका हो.
उन्होंने आगे कहा कि भारत को चाहिए कि वह खुद को एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में देखे. भारत को चीन के खिलाफ अमेरिका के पाले में खड़े होने की आवश्यकता नहीं है. भारत को बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था का समर्थन करना चाहिए, जहाँ वह अमेरिका, रूस, चीन, अफ्रीका और बाकी दुनिया के साथ संतुलित और परस्पर सम्मानजनक संबंध बनाए रख सके. भारत को ऐसी नीतियों से बचना चाहिए जो उसे अमेरिका का केवल एक मोहरा बना दें.
अमेरिकी कानून के खिलाफ है ट्रंप का टैरिफ
जहाँ तक अमेरिका द्वारा लगाए गए टैरिफ का सवाल है, प्रोफेसर जैफरी ने कहा कि यह कदम न केवल राजनीति से प्रेरित है, बल्कि अमेरिका के संविधान के भी खिलाफ है. टैक्स लगाने का अधिकार अमेरिकी राष्ट्रपति के पास नहीं है, बल्कि यह संसद के पास है. इस पर अमेरिकी अदालतों में केस भी चल रहा है. लेकिन यह स्पष्ट है कि ट्रंप की नीतियाँ अस्थिर, एकपक्षीय और अंतरराष्ट्रीय व्यापार के बेसिक्स और मूल भावना के विरुद्ध भी है.
'ट्रंप के कारण अमेरिका और भारत में द्विपक्षीय व्यापार में बढ़ोतरी असंभव है'
यह भी विचारणीय है कि भारत और अमेरिका के बीच व्यापार को 100 बिलियन डॉलर से 500 बिलियन डॉलर तक ले जाने की जो बात की जा रही थी, वह अब असंभव लगती है. न कि आर्थिक कारणों से, बल्कि राजनीतिक अस्थिरता और संरक्षणवादी सोच के कारण. ट्रंप न तो चीन से व्यापार कम करेंगे और न भारत से व्यापार अचानक बढ़ने देंगे. इसलिए भारत को एक दीर्घकालिक रणनीति बनानी होगी जिसमें विविधता हो, आत्मनिर्भरता हो और एशिया के साथ आर्थिक एकीकरण हो.
प्रोफेसर ने अमेरिका के साथ तनावपूर्ण रिश्तों की काट और बैलेंसिंग एक्ट के तहत कहा कि भारत और चीन के बीच बेहतर संबंध बन सकते हैं और बनने चाहिए. दोनों देशों में विश्वास की कमी है, विशेषकर सीमा विवादों को लेकर, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की चीन यात्रा इस बात का संकेत हो सकती है कि भारत अब कूटनीतिक समझदारी दिखा रहा है. अमेरिका एक बार फिर पाकिस्तान को गले लगा रहा है. वहां के सेनाध्यक्ष की ट्रंप से बार-बार हो रही मुलाक़ातें इसका संकेत हैं. इससे भारत को यह समझना चाहिए कि अमेरिका कभी किसी का स्थायी मित्र नहीं होता. उसे केवल अपने हित दिखते हैं.
भारत ये काम करे!
इसलिए भारत को चाहिए कि वह अमेरिका की दुविधापूर्ण नीतियों के बजाय एशिया, अफ्रीका और वैश्विक दक्षिण के साथ आर्थिक और रणनीतिक साझेदारी को प्राथमिकता दे. भारत को RCEP जैसे क्षेत्रीय समझौतों में भागीदारी बढ़ानी चाहिए. यही भारत की दीर्घकालिक आर्थिक स्थिरता और वैश्विक नेतृत्व की दिशा में एक प्रभावशाली कदम होगा.
वहीं यूक्रेन के साथ जारी युद्ध के बीच पुतिन की अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मुलाकात होने जा रही है. उनकी पहले भी मुलाकात हो चुकी है, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला. ऐसे में फिर से ट्रंप-पुतिन की बैठक होने वाली है, तो उसके नतीजों पर दुनिया भर की नज़र है. हालांकि Jeffrey Sachs ने इस बार बात करते हुए अमेरिकी दोहरापन और दोगलेपन की पोल खोल दी. उन्होंने कहा कि ये युद्ध की शुरुआत भी अमेरिका की पिछले 30 सालों से अपनाई गई पॉलिसीज की वजह से हुई हैं. जैफरी सैक्स ने कहा कि यह मेरे लिए हैरान करने वाली ख़बर है क्योंकि खुले तौर पर अमेरिका ने ऐसे कोई कदम नहीं उठाए हैं जिससे दोनों देशों के बीच युद्ध खत्म हो सके.
'रूस-यूक्रेन युद्ध अमेरिका की देन'
Sachs ने पुतिन-ट्रंप की बैठक और उसकी प्रासंगिकता पर भी सवाल उठाए. Sachs के अनुसार अमेरिका भले रूस के साथ युद्धविराम पर बात करने जा रहा हो, ये दिखावे से कम नहीं है. मीटिंग तो हो रही है लेकिन अमेरिका ने अब तक ऐसे कोई ठोस कदम नहीं उठाए जिसे ये कहा जाए कि उसने इस युद्ध को रोकने के लिए सच में, दिल से प्रयास किए हों. उन्होंने दो टूक कहा कि इस युद्ध को मूलतः संयुक्त राज्य अमेरिका ने पिछले 30 वर्षों में भड़काया है. उन्होंने इसके पीछे उदाहरण देते हुए कहा कि अमेरिका ने तत्कालीन सोवियत संघ से वादा किया था कि वो रूस के पूर्वोतर में नाटो का विस्तार नहीं करेगा जिससे कि रूस या USSR को असुरक्षा महसूस हो, लेकिन उसने वादाखिलाफी की, धोखा दिया और 1991 में जब सोवियत संघ खत्म हुआ, तो अमेरिका ने अपने वादे को तोड़ दिया और नाटो का विस्तार शुरू कर दिया.
रूस को घेरने के लिए हुआ NATO का विस्तार
उन्होंने आगे कहा कि NATO का विस्तार 1994 में राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के फैसले से शुरू हुआ. तब से नाटो रूस को घेरने के इरादे से पूर्व की ओर बढ़ता गया. अमेरिकी राजनीतिक वर्ग में कई लोग रूस को हराने, विभाजित करने या कह सकते हैं 'रूस का उपनिवेशीकरण' करने की सोच रखते हैं. लेकिन इसका सार यह है कि शीत युद्ध के बाद से अमेरिकी नीति रूस को हराने की रही है, रूस के साथ शांतिपूर्ण रहने की नहीं.
'रूस जो कह रहा वह सही है'
Sachs ने सिलसिलेवार रूप से अमेरिका की शांति और भारत जैसे देशों पर रूसी वॉर मशीन को फंड करने के आरोपों पर तगड़ा जवाब दिया. उन्होंने कहा कि अब जो बैठक हो रही है वो इसलिए भी आश्चर्यजनक है क्योंकि रूस कह रहा है कि अगर इस युद्ध को खत्म करना है तो इसके मूल कारणों को समझना होगा. और वह कारण है नाटो का विस्तार. इसके अलावा, अमेरिका ने 2014 में यूक्रेन में एक तख्तापलट किया, जिसने एक ऐसी सरकार बनायी जो नाटो समर्थक थी, जबकि उनके पूर्वर्ती राष्ट्रपति यूक्रेन की तटस्थता चाहते थे, जो सही नीति थी. फिर अमेरिका ने मिंस्क 2 समझौते को भी ठुकरा दिया, जो पूर्वी यूक्रेन में रहने वाले रूसी मूल के लोगों के लिए स्वायत्तता देने की बात करता था और जिसे यूएन सुरक्षा परिषद ने समर्थन दिया था.
अमेरिका ने यूक्रेनी नेताओं को कहा कि इसे लागू मत करो. फिर फरवरी 2022 में रूस के आक्रमण के बाद, रूस और यूक्रेन के बीच एक शांति समझौता लगभग हो चुका था, जो यूक्रेन की तटस्थता पर आधारित था. लेकिन अमेरिका ने फिर से इसमें हस्तक्षेप किया और ज़ेलेंस्की को कहा कि इसे मत मानो, हम लड़ेंगे और रूस को हरा देंगे.
अगर ट्रंप सच में युद्ध रोकना चाहते हैं तो कहें कि अमेरिका...
अमेरिकी अर्थशास्त्री ने कहा कि अगर ट्रंप सच में युद्ध रोकना चाहते हैं तो कहें कि अमेरिका नाटो पूर्व की ओर नहीं बढ़ेगा, अमेरिका रूस के खिलाफ अपनी नीति बंद कर देगा, और यूक्रेन तटस्थ और सुरक्षित रहेगा, तब शांति संभव हो सकती है. लेकिन ट्रंप ने इस बात को कहने का साहस नहीं दिखाया.
मिलिट्री-इंडस्ट्रियल कॉम्प्लेक्स से घिरे हैं ट्रंप!
मुझे नहीं पता वह व्यक्तिगत रूप से क्या सोचते हैं, लेकिन वे अमेरिकी सैन्य-औद्योगिक कॉम्प्लेक्स से घिरे हैं, जो इस सोच के बिल्कुल खिलाफ है. मुझे यह देखना होगा कि यह बैठक क्या लाती है. लेकिन ट्रम्प द्वारा सैन्य-औद्योगिक कॉम्प्लेक्स की ओर से यह कहा जाना कि बस युद्धविराम हो जाए बिना मूल कारणों को सुलझाए, रूस की नजर में अस्वीकार्य है. रूस के अनुसार, इसका मतलब यह होगा कि पश्चिम जब चाहेगा फिर से युद्ध शुरू कर देगा, बजाय इसके कि युद्ध के मूल कारणों को सुलझाया जाए. इसलिए अगर इस युद्ध को खत्म करना है तो इसके मूल कारणों को संबोधित करना होगा. पिछले 30 वर्षों में मजबूत पक्ष अमेरिका रहा है जिसने Basically रूस को यह कह दिया कि हम जहां चाहे, जब चाहे, जो चाहे करेंगे. और इसीलिए यह युद्ध जारी है. अगर ट्रंप कुछ अलग कहेंगे तो शायद युद्ध खत्म हो सकता है.
Advertisement
यह भी पढ़ें
Advertisement