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छठ पूजा में सूर्य की आराधना का महत्व: जन्म, वंश और ऊर्जा से जुड़ी सूर्य देव की दिव्य उत्पत्ति कथा का रोचक कथा

छठ पर्व में सूर्य देव को आराध्य माना जाता है। मान्यता है कि सूर्य की पूजा से जीवन में आरोग्य, समृद्धि और ऊर्जा प्राप्त होती है. पौराणिक कथाओं के अनुसार सूर्य देव की उत्पत्ति ब्रह्मांड में प्रकाश और जीवन देने के लिए हुई, इसलिए छठ में अस्त और उदय होते सूर्य को अर्घ्य देकर आभार व्यक्त किया जाता है.

छठ महापर्व की धूम पूरे देश में बिखरी हुई है. कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी से शुरू होने वाला यह चार दिवसीय पर्व मुख्य रूप से बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है. लोक आस्था का प्रतीक माने जाने वाले इस त्योहार का केंद्र बिंदु हैं सूर्य देवता. सूर्य को जीवनदायी ऊर्जा का स्रोत माना जाता है, और छठ पूजा में उगते व डूबते सूर्य को अर्घ्य अर्पित कर उनकी आराधना की जाती है.

लेकिन क्या आप जानते हैं कि सूर्य देव की उत्पत्ति की पौराणिक कथा क्या है? वैदिक ग्रंथों से लेकर पुराणों तक फैली यह कहानी ब्रह्मांड की रचना से जुड़ी है. आइए, इसकी गहराई में उतरें.

छठ पर्व और सूर्य पूजा का महत्व

छठ पर्व सूर्य देव की उपासना का प्राचीन उत्सव है, जहां व्रती निर्जला व्रत रखकर सूर्य की पहली किरण (ऊषा) और अंतिम किरण (प्रत्यूषा) को अर्घ्य देते हैं. ऋग्वेद में सूर्य को 'सवित्र' के रूप में वर्णित किया गया है, जो गायत्री मंत्र का आधार है. यह पर्व न केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिए लाभकारी माना जाता है, बल्कि आध्यात्मिक रूप से भी सूर्य की शक्तियों, ऊषा और प्रत्यूषा, की संयुक्त आराधना पर जोर देता है. पर्व का वैज्ञानिक महत्व भी है, क्योंकि सूर्य की किरणें विटामिन डी प्रदान कर रोगों से बचाव करती हैं. 

हिरण्यगर्भ सूक्त से सूर्य का जन्म

सूर्य देव की उत्पत्ति की कहानी वैदिक काल से जुड़ी है. ऋग्वेद के दशम मंडल के 121वें सूक्त, जिसे 'हिरण्यगर्भ सूक्त' कहा जाता है, में ब्रह्मांड की रचना का वर्णन है. इस सूक्त के प्रथम श्लोक में कहा गया है:
"हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्. स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥"  इसका अर्थ है कि प्रारंभ में एक स्वर्णिम अंडे (हिरण्यगर्भ) से ब्रह्मांड का उदय हुआ. यह अंडा विस्फोटित होकर जीवन का प्रारंभिक पिंड बना, जिसमें से सूर्य देव का जन्म हुआ. सूर्य को ब्रह्मांड का पालनकर्ता माना गया, जो पृथ्वी और आकाश को धारण करता है. ऋग्वेद में सूर्य को आदि देव के रूप में पूजा जाता है, और यह प्रथा छठ पर्व की जड़ है. वैदिक काल में सूर्य उपासना व्यापक थी, जो सृष्टि के विकास के साथ विभिन्न रूपों में विकसित हुई.

शिव के त्रिशूल से सूर्य का विभाजन

पुराणों में सूर्य की उत्पत्ति की और भी रोचक कथाएं हैं. विष्णु पुराण के अनुसार, भगवान विष्णु की नाभि से कमल प्रकट हुआ, जिसमें ब्रह्मा का जन्म हुआ. इसी कमल के मूल से शिव की उत्पत्ति हुई. लेकिन सूर्य की कहानी में एक प्रसंग शिव से जुड़ा है. कथा के अनुसार, सूर्य का जन्म इतना तेजस्वी था कि राक्षस भयभीत होकर भाग गए. उनकी प्रलयकारी ज्योति को नियंत्रित करने के लिए भगवान शिव ने त्रिशूल से सूर्य को तीन टुकड़ों में विभाजित कर दिया – एक भाग सूर्य के रूप में, दूसरा विष्णु के सुदर्शन चक्र में, और तीसरा शिव के तीसरे नेत्र में रूपांतरित हो गया.

इस प्रकार सूर्य कुल की स्थापना हुई, जो रामायण के सूर्यवंश से जुड़ती है.  एक अन्य कथा में, सूर्य को विष्णु का ही स्वरूप माना गया है. महाभारत में उल्लेख है कि "सर्वदेवनमस्कार: केशवं प्रति गच्छति" – अर्थात सभी देवताओं को नमस्कार विष्णु को ही पहुंचता है. इस कारण छठ पूजा को विष्णु उपासना का माध्यम भी कहा जाता है.

छठ पूजा से जुड़ी सूर्य आराधना की पौराणिक कथाएं

छठ पर्व की शुरुआत सूर्य की ही पूजा से जुड़ी है. रामायण के अनुसार, लंका विजय के बाद भगवान राम और माता सीता ने कार्तिक शुक्ल षष्ठी को सूर्य देव की आराधना की. रावण वध के पाप से मुक्ति के लिए उन्होंने ऋषि मुद्गल के मार्गदर्शन में यज्ञ किया और छठ व्रत रखा. सीता ने विशेष रूप से सूर्य की किरणों की देवी उषा से प्रार्थना की, जिससे परिवार और प्रजा पर प्रकाश व समृद्धि बनी रहे. इसी से छठ की परंपरा आरंभ हुई.  महाभारत में पांडवों और द्रौपदी ने राज्य प्राप्ति के लिए छठ व्रत किया. एक अन्य कथा में, देवमाता अदिति ने प्रथम देवासुर संग्राम में हार के बाद तेजस्वी पुत्र (इंद्र) की कामना से छठी मैया की आराधना की, जो सूर्य मंदिर में सूर्य पूजा से जुड़ी थी. राजा प्रियंवद की नि:संतान कथा भी प्रसिद्ध है, जहां यज्ञ की खीर से संतान प्राप्ति हुई, लेकिन पूर्ण फल छठ व्रत से मिला.  इन कथाओं से स्पष्ट है कि सूर्य आराधना संतान सुख, स्वास्थ्य और समृद्धि का प्रतीक है.

सूर्य पूजा का आधुनिक संदर्भ

छठ पर्व प्राचीन सूर्य उपासना की जीवित विरासत है. 12वीं शताब्दी के पाल वंश में बिहार के सूर्य मंदिर इसका प्रमाण हैं. वैज्ञानिक रूप से, सूर्य की किरणें कुष्ठ रोग जैसी बीमारियों के उपचार में सहायक हैं. लोक मान्यता है कि छठ व्रत से छठी मैया (सूर्य की बहन मानी जाने वाली षष्ठी देवी) संतान की रक्षा करती हैं.  यह पर्व प्रकृति के प्रति समर्पण सिखाता है – बिना मूर्ति या मंदिर के, केवल जल, प्रकाश और संकल्प से. इस वर्ष 2025 में छठ का समापन 27 अक्टूबर को उदीयमान सूर्य को अर्घ्य से होगा. सूर्य की उत्पत्ति की यह कथा हमें ब्रह्मांड की अनंत ऊर्जा से जोड़ती है.

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